- महाभारत उद्योग पर्व में यानसंधि पर्व के अंतर्गत 59वें अध्याय में 'संजय द्वारा धृतराष्ट्र को कृष्ण और अर्जुन के संदेश सुनाने' का वर्णन है, जो इस प्रकार है[1]-
विषय सूची
धृतराष्ट्र का श्रीकृष्ण व अर्जुन के विषय में पूछना
धृतराष्ट्र ने पूछा- महाप्राज्ञ संजय! महात्मा भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन ने जो कुछ कहा हो, वह मुझे बताओ; मैं तुम्हारे मुख से उनके संदेश सुनना चाहता हूँ।
संजय द्वारा श्रीकृष्ण व अर्जुन के बारे में बताना
संजय ने कहा- भरतवंशी नरेश! सुनिये! मैंने वीरवर श्रीकृष्ण और अर्जुन को जैसे देखा है और उन्होंने जो संदेश दिया है, वह आपको बता रहा हूँ। राजन! मैं नरदेव श्रीकृष्ण और अर्जुन से आपका संदेश सुनाने के लिये मन को पूर्णत: संयम में रखकर अपने पैरों की अंगलियों पर ही दृष्टि लगाये और हाथ जोडे़ हुए उनके अन्त:पुर में गया। जहाँ श्रीकृष्ण, अर्जुन, द्रौपदी और मानिनी सत्यभामा विराज रही थीं, उस स्थान में कुमार अभिमन्यु तथा नकुल-सहदेव भी नहीं जा सकते थे। वे दोनों मित्र मधुर पेय पीकर आनन्दविभोर हो रहे थे। उन दोनों के श्रीअंग चन्दन से चर्चित थे। वे सुन्दर वस्त्र और मनोहर पुष्पमाला धारण करके दिव्य आभूषणों से विभूषित थे। शत्रुओं का दमन करने वाले वे दोनों वीर जिस विशाल आसन पर बैठे थे, वह सोने का बना हुआ था। उसमें अनेक प्रकार के रत्न जटित होने के कारण उसकी विचित्र शोभा हो रही थी। उस पर भाँति-भाँति के सुन्दर बिछौने बिछे हुए थे। मैंने देखा, श्रीकृष्ण के दोनों चरण अर्जुन की गोद में थे और महात्मा अर्जुन का एक पैर द्रौपदी की तथा दूसरा सत्यभामा की गोद में था। कुन्तीकुमार अर्जुन ने उस समय मुझे बैठने के लिये एक सोने के पादपीठ [2] की ओर संकेत कर दिया। परंतु मैं हाथ से उसका स्पर्शमात्र करके पृथ्वी पर ही बैठ गया। बैठ जाने पर वहाँ मैंने पादपीठ से हटाये हुए अर्जुन के दोनों सुन्दर चरणों को ध्यानपूर्वक देखा। उनके तलुओं में ऊर्ध्वगामिनी रेखाएं दृष्टिगोचर हो रही थीं और वे दोनों पैर शुभसूचक विविध लक्षणों से सम्पन्न थे।
श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों श्यामवर्ण, बड़े डील-डौल वाले, तरुण तथा शालवृक्ष के स्कन्धों के समान उन्नत हैं। उन दोनों को एक आसन पर बैठे देख मेरे मन में बड़ा भय समा गया। मैंने सोचा, इन्द्र और विष्णु के समान अचिन्त्य शक्तिशाली इन दोनों वीरों को मन्दबुद्धि दुर्योधन नहीं समझ पाता हैं। वह द्रोणाचार्य और भीष्म का भरोसा करके तथा कर्ण की डींग-भरी बातें सुनकर मोहित हो रहा है। ये दोनों महात्मा जिनकी आज्ञा का पालन करने के लिये उदा उद्यत रहते हैं, उन धर्मराज युधिष्ठिर का मानसिक संकल्प अवश्य सिद्ध होगा; यही उस समय मेरा निश्चय हुआ था। तत्पश्चात अन्न और जल के द्वारा मेरा सत्कार किया गया। यथोचित आदर-सत्कार पाकर जब मैं बैठा, तब माथ पर अञ्जलि जोड़कर मैंने उन दोनों से आपका संदेश कह सुनाया। तब अर्जुन ने जिसमें धनुष की डोरी की रगड़ से चिह्न बन गया था, उस हाथ से भगवान श्रीकृष्ण के शुभसूचक लक्षणों से युक्त चरण को धीरे-धीरे दबाते हुए उन्हें मुझको उत्तर देने के लिये प्रेरित किया। तदनन्तर इन्द्र के समान पराक्रमी तथा समस्त आभूषणों से विभूषित वक्ताओं में श्रेष्ठ श्रीकृष्ण इन्द्रध्वज के समान उठ बैठे और मुझसे पहले तो मृदुल एवं मन को आह्लाद प्रदान करने वाली प्रवचन योग्य वाणी बोले। फिर वह वाणी अत्यन्त दारुणरूप में प्रकट हुई, जो आपके पुत्रों के लिये भय उपस्थित करने वाली थी।[1] तत्पश्चात बातचीत में कुशल भगवान श्रीकृष्ण की वह वाणी मेरे सुनने में आयी, जिसका एक-एक अक्षर शिक्षाप्रद था। वह अभीष्ट अर्थ का प्रतिपादन करने वाली तथा मन को मोह लेने वाली थी।
संजय द्वारा श्रीकृष्ण व अर्जुन के संदेश सुनाना
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- संजय! जब कुरुकुल के प्रधान पुरुष भीष्म तथा आचार्य द्रोण भी सुन रहे हों, उसी समय तुम बुद्धिमान राजा धृतराष्ट्र से यह बात कहना। सूत! हम दोनों की ओर से पहले तुम हमसे बड़ी अवस्था वाले श्रेष्ठ पुरुषों को प्रणाम कहना और जो लोग अवस्था में हमसे छोटे हों, उनकी कुशल पूछना। इसके बाद हमारा यह उत्तर सुना देना ‘कौरवों! नाना प्रकार के यज्ञों का अनुष्ठान आरम्भ करो, ब्राह्मणों को दक्षिणाएं दो, पुत्रों और स्त्रियों से मिल-जुलकर आनन्द भोग लो; क्योंकि तुम्हारे ऊपर बहुत बड़ा भय आ पहुँचा है। ‘तुम सुपात्र व्यक्तियों को धन का दान दे लो, अपनी इच्छा के अनुसार पुत्र पैदा कर लो तथा अपने प्रेमीजनों का प्रिय कार्य सिद्ध कर लो; क्योंकि राजा युधिष्ठिर अब हम लोगों पर विजय पाने के लिये उतावले हो रहे हैं। ‘जिस समय कौरव सभा में द्रौपदी का वस्त्र खींचा जा रहा था, मैं हस्तिनापुर से बहुत दूर था। उस समय कृष्णा ने आर्तभाव से ‘गोविन्द’ कहकर जो मुझे पुकारा था, उसका मेरे ऊपर बहुत बड़ा ऋण है और यह ऋण बढ़ता ही जा रहा है। अपराधी कौरवों का संहार किये बिना उसका भार मेरे हृदय से दूर नहीं हो सकता। ‘जिनके पास अजेय तेजस्वी गांडीव नामक धनुष है और जिनका मित्र या सहायक दूसरा मैं हूँ, उन्हीं सव्यसाची अर्जुन के साथ यहाँ तुमने बैर बढा़या है।
‘जिसको काल ने सब ओर से घेर न लिया हो, ऐसा कौन पुरुष, भले ही वह साक्षात इन्द्र ही क्यों न हो, उस अर्जुन के साथ युद्ध करना चाहता है, जिसका सहायक दूसरा मैं हूँ। ‘जो अर्जुन को युद्ध में जीत ले, वह अपनी दोनों भुजाओं पर इस पृथ्वी को उठा सकता है, कुपित होकर इन समस्त प्रजा को भस्म कर सकता है और सम्पूर्ण देवताओं को स्वर्ग से नीचे गिरा सकता है। ‘देवताओं, असुरों, मनुष्यों, यक्षों, गन्धर्वों तथा नागों में भी मुझे कोई ऐसा वीर नहीं दिखायी देता, जो पाण्डुनन्दन अर्जुन का सामना कर सके। ‘विराट नगर में अकेले अर्जुन और बहुत से कौरवों का जो अद्भुत और महान संग्राम सुना जाता है, वही मेरे उपर्युक्त कथन की सत्यता का पर्याप्त प्रमाण है। ‘जब विराटनगर में एकमात्र पाण्डुकुमार अर्जुन से पराजित हो तुम लोगों ने भागकर विभिन्न दिशाओं की शरण ली थी, वह एक ही दृष्टान्त अर्जुन की प्रबलता का पर्याप्त प्रमाण है। ‘बल, पराक्रम, तेज, शीघ्रकारिता, हाथों की फुर्ती, विषादहीनता तथा धैर्य- ये सभी सद्गुण कुन्तीपुत्र अर्जुन के सिवा एक साथ दूसरे किसी पुरुष में नहीं है’। जैसे इन्द्र आकाश में गर्जता हुआ समय पर वर्षा करता है, उसी प्रकार भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अपनी वाणी से आनन्दित करते हुए उपर्युक्त बात कही। भगवान श्रीकृष्ण का वचन सुनकर किरीटधारी श्वेतवाहन अर्जुन ने भी उसी रोमाञ्चकारी महावाक्य को दुहरा दिया।[3]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 59 श्लोक 1-16
- ↑ पैर रखने के पीढे़
- ↑ महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 59 श्लोक 17-31
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| कृष्ण का युधिष्ठिर से युद्ध को ही कर्तव्य बताना
| युधिष्ठिर का संताप और अर्जुन द्वारा कृष्ण के वचनों का समर्थन
| दुर्योधन द्वारा सेनाओं का विभाजन और सेनापतियों का अभिषेक
| दुर्योधन द्वारा भीष्म का सेनापति पद पर अभिषेक
| युधिष्ठिर द्वारा अपने सेनापतियों का अभिषेक
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