- धृतराष्ट्र संजय से कुरुक्षेत्र में सेनाओं के पड़ाव डल जाने पर विलाप करते हुए कहते हैं कि- 'संजय मैं अपने मूर्ख पुत्र को न तो रोक सकता हूँ और ही अपना हित साधन कर सकता हूँ। अत: तुम मुझे कुरुक्षेत्र का सम्पूर्ण वृत्तांत सुनाओ। अब दुर्योधन कर्ण, दु:शासन व शकुनि के साथ गुप्त मंत्रणा करके उलूक को बुलाकार पाडवों, श्रीकृष्ण व अन्य राजाओं के लिए संदेश सुनाकर दूत के रूप में भेजता है, जिसका उल्लेख महाभारत उद्योग पर्व में उलूकदूतागमन पर्व के अंतर्गत अध्याय 160 में निम्न प्रकार हुआ है[1]-
विषय सूची
दुर्योधन का उलूक को दूत बनाकर पाण्डवों के पास भेजना
संजय कहते हैं- महाराज! महात्मा पाण्डवों ने जब हिरण्वती नदी के तट पर अपना पड़ाव डाल दिया, तब कौरवों ने भी विधिपूर्वक दूसरे स्थान पर अपनी छावनी डाली। राजा दुर्योधन ने वहाँ अपनी शक्तिशालिनी सेना ठहराकर समस्त राजाओं को समादर करके उन सबकी रक्षा के लिये कई गुल्म सैनिकों की टुकड़ियों को तैनात कर दिया। भारत! इस प्रकार योद्धाओं के संरक्षण की व्यवस्था करके राजा दुर्योधन कर्ण, दु:शासन तथा सुबलपुत्र शकुनि को बुलाकर गुप्तरूप से मन्त्रणा की। राजेन्द्र! भरतनन्दन! नरश्रेष्ठ! दुर्योधन ने कर्ण, भाई दु:शासन तथा सुबलपुत्र शकुनि से सम्भाषण एवं सलाह करके उलूक को एकान्त में बुलाकर उसे इस प्रकार कहा- 'द्यूतकुशल शकुनि के पुत्र उलूक! तुम सोमकों और पाण्डवों के पास जाओ तथा वहाँ पहुँचकर वासुदेव श्रीकृष्ण के सामने ही उनसे मेरा यह संदेश कहो- कितने ही वर्षों से जिसका विचार चल रहा था, वह सम्पूर्ण जगत के लिये अत्यन्त भंयकर कौरव-पाण्डवों का युद्ध अब सिर पर आ पहुँचा है। कुन्तीकुमार युधिष्ठिर! श्रीकृष्ण की सहायता पाकर भाइयों सहित गर्जना करते हुए तुमने संजय से जो आत्मश्लाघापूर्ण बातें कही थीं और जिन्हें संजय ने कौरवों की सभा में बहुत बढ़ा-चढ़ाकर सुनाया था, उन सबको सत्य करके दिखाने का यह अवसर आ गया है। तुम लोगों ने जो-जो प्रतिज्ञाएं की हैं, उन सबको पूर्ण करो।'[1]
दुर्योधन का युधिष्ठिर के लिए संदेश देना
उलूक! तुम मेरे कहने से कुन्ती के ज्येष्ठ पुत्र युधिष्ठिर के सामने जाकर इस प्रकार कहना- राजन तुम तो अपने सभी भाइयों, सोमकों और केकयों सहित बड़े धर्मात्मा बनते हो। धर्मात्मा होकर अधर्म में कैसे मन लगा रहे हो। मेरा तो ऐसा विश्वास था कि तुमने समस्त प्राणियों को अभयदान दे दिया है; परंतु इस समय तुम एक निर्दय मनुष्य की भाँति सम्पूर्ण जगत का विनाश देखना चाहते हो। भरतश्रेष्ठ! तुम्हारा कल्याण हो। सुना जाता है कि पूर्वकाल में जब देवताओं ने प्रह्लाद का राज्य छीन लिया था, तब उन्होंने इस प्रकार गान किया था। देवताओं! साधारण ध्वज की भाँति जिसकी धर्ममयी ध्वजा सदा ऊँचे तक फहराती रहती है; परंतु जिसके द्वारा गुप्त रूप से पाप भी होते रहते हैं, उसके उस व्रत को विडालव्रत कहते हैं। नरेश्वर! इस विषय में तुम्हें यह उत्तम आख्यान सुना रहा हूं, जिसे नारद जी ने मेरे पिता जी से कहा था। राजन! यह प्रसिद्ध है कि किसी समय एक दुष्ट बिलाव दोनों भुजाएं ऊपर किये गंगा जी के तट पर खड़ा रहा। वह किसी भी कार्य के लिये तनिक भी चेष्टा नहीं करता था। इस प्रकार समस्त देहधारियों पर विश्वास जमाने के लिये वह सभी प्राणियों से यही कहा करता था कि अब मैं मानसिक शुद्धि करके हिंसा छोड़कर धर्माचरण कर रहा हूँ। राजन! दीर्घकाल के पश्चात धीरे-धीरे पक्षियों ने उस पर विश्वास कर लिया। अब वे उस बिलाव के पास आकर उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। पक्षियों को अपना आहार बनाने वाला वह बिलाव जब उन समस्त पक्षियों द्वारा अधिक आदर-सत्कार पाने लगा, तब उसने यह समझ लिया कि मेरा काम बन गया और मुझे धर्मानुष्ठान का भी अभीष्ट फल प्राप्त हो गया। तदनन्तर बहुत समय के पश्चात उस स्थान पर चूहे भी गये। वहाँ जाकर उन्होंने कठोर मत का पालन करने वाले उस धर्मात्मा बिलाव को देखा। भारत! दम्भयुक्त महान कर्मों के अनुष्ठान में लगे हुए उस बिलाव को देखकर उनके मन में यह विचार उत्पन्न हुआ। हम सब लोगों के बहुत से मित्र हैं, अत: अब यह विबाल भी हमारा मामा होकर रहे और हमारे यहाँ जो वृद्ध तथा बालक हैं, उन सबकी सदा रक्षा करता रहे।[1]
यह सोचकर वे सभी उस बिलाव के पास गये और इस प्रकार बोले- मामा जी! हम सब लोग आपकी कृपा से सुख पूर्वक विचरना चाहते हैं। आप ही हमारे निर्भय आश्रय हैं और आप ही हमारे परम सुदृढ़ हैं। हम सब लोग एक साथ संगठित होकर आपकी शरण में आये हैं। आप सदा धर्म में तत्पर रहते हैं और धर्म में ही आप की निष्ठा है। महामते! जैसे वज्रधारी इन्द्र, देवताओं की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार आप हमारा संरक्षण करें। प्रजानाथ! उन सम्पूर्ण चूहों के द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर मूषकों के लिये यमराजस्वरूप उस बिलाव ने उन सबको इस प्रकार उत्तर दिया। मैं तपस्या भी करूं और तुम्हारी रक्षा भी- इन दोनों कार्यों का परस्पर सम्बन्ध मुझे दिखायी नहीं देता है- ये दोनों काम एक साथ नहीं चल सकते हैं। तथापि मुझे तुम लोगों के हित की बात भी अवश्य करनी चाहिये। तुम्हें भी प्रतिदिन मेरी एक आज्ञा का पालन करना होगा। मैं तपस्या करते-करते बहुत थक गया हूँ और दृढ़तापूर्वक संयम-नियम के पालन में लगा रहता हूँ। बहुत सोचने पर भी मुझे अपने भीतर चलने-फिरने की कोई शक्ति नहीं दिखायी देती; अत: तात! तुम्हें सदा मुझे यहाँ से नदी के तट तक पहुँचाना पड़ेगा। भरतश्रेष्ठ! ‘बहुत अच्छा’ कहकर चूहों ने बिलाव की आज्ञा का पालन करने के लिये हामी भर ली और वृद्ध तथा बालकों सहित अपना सारा परिवार उस बिलाव को सौंप दिया। फिर तो वह पापी एवं दुष्टात्मा बिलाव प्रतिदिन चूहों को खा-खाकर मोटा और सुंदर होने लगा। उसके अंगों का एक-एक जोड़ मजबूत हो गया। इधर चूहों की संख्या बड़े वेग से घटने लगी और वह बिलाव तेज और बल से सम्पन्न हो प्रतिदिन बढ़ने लगा। तब वे चूहे परस्पर मिलकर एक-दूसरे से कहने लगे- क्यों जी! क्या कारण है कि मामा तो नित्य मोटा-ताजा होता जा रहा है और हमारी संख्या बड़े वेग से घटती चली जा रही है।
राजन! उन चूहों में कोई डिंडिक नाम वाला चूहा सबसे अधिक समझदार था। उसने मूषकों के उस महान समुदाय से इस प्रकार कहा- तुम सब लोग विशेषत: एक साथ नदी के तट पर जाओ। पीछे से मैं भी मामा के साथ ही वहीं आजाऊँगा। तब 'बहुत अच्छा, बहुत अच्छा’ कहकर उन सबने डिंडिक की बड़ी प्रशंसा की और यथोचितरूप से उसके सार्थक वचनों का पालन किया। बिलाव को चूहों की जागरूकता का कुछ पता नहीं था। अत: वह डिंडिक को भी खा गया। तदनन्तर एक दिन सब चूहे एक साथ मिलकर आपस में सलाह करने लगे। उनमें कोलिक नाम से प्रसिद्ध कोई चूहा था, जो अपने भाई-बन्धुओं में सबसे बूढ़ा था। उसने सब लोगों को यथार्थ बात बतायी। भाइयों! मामा को धर्माचारण की रत्तीभर भी कामना नहीं है। उसने हम-जैसे लोगों को धोखा देने के लिये ही जटा बढ़ा रखी है। जो फल मूल खाने वाला है, उसकी विष्ठा में बाल नहीं होते। उसके अंग दिनों-दिन ह्ष्ट–पुष्ट होते जा रहे हैं और हमारा यह दल रोज-रोज घटता जा रहा है। आज सात आठ दिनों से डिंडिक का भी दर्शन नहीं हो रहा है। कोलिक की यह बात सुनकर सब चूहे भाग गये और वह दुष्टात्मा बिलाव भी अपना-सा मुंह लेकर जैसे आया था, वैसे चला गया। दुष्टामन! तुमने भी इसी प्रकार विडालव्रत धारण कर रखा है। जैसे चूहों में बिलाव ने धर्माचरण का ढोंग रच रखा था, उसी प्रकार तुम भी जाति-भाइयों मे धर्माचारी बने फिरते हो। तुम्हारी बातें तो कुछ और हैं; परंतु कर्म कुछ और ही ढंग का दिखायी देता है। तुम्हारा वेदाध्ययन और शान्त-स्वभाव लोगों को दिखाने के लिये पाखण्डमात्र है।[2]
राजन! नरश्रेष्ठ! यदि तुम धर्मनिष्ठ हो तो यह छल-छद्म छोड़कर क्षत्रिय-धर्म का आश्रय ले उसी के अनुसार सब कार्य करो। भरतश्रेष्ठ! अपने बाहुबल से इस पृथ्वी का राज्य प्राप्त करके तुम ब्राह्मणों को दान दो और पितरों का उनका यथोचित भाग अर्पण करो। तुम्हारी माता वर्षों से कष्ट भोग रही है; अत: माता के हित में तत्पर हो उसके आंसू पोंछो और युद्ध में विजय प्राप्त करके परम सम्मान के भागी बनो। तुमने केवल पाँच गाँव माँगे थे, परंतु हमने प्रयत्नपूर्वक तुम्हारी वह माँग इसलिये ठुकरा दी है कि पाण्डवों को किसी प्रकार कुपित करें, जिससे संग्राम-भूमि में उनके साथ युद्ध करने का अवसर प्राप्त हो। तुम्हारे लिये ही मैंने दुष्टात्मा विदुर का परित्याग कर दिया है। लाक्षागृह में अपने जलाये जाने की घटना का स्मरण करो और अब से भी मर्द बन जाओ। तुमने कौरव-सभा में आये हुए श्रीकृष्ण से जो यह संदेश दिलाया था कि राजन! मैं शान्ति और युद्ध दोनों के लिये तैयार हूँ। नरेश्वर! उस समर का यह उपयुक्त अवसर आ गया है। युधिष्ठिर! इसी के लिये मैंने यह सब कुछ किया है। भला, क्षत्रिय युद्ध से बढ़कर दूसरे किस लाभ को महत्त्व देता है इसके सिवा, तुमने भी तो क्षत्रिय कुल में उत्पन्न होकर इस पृथ्वी पर बड़ी ख्याति प्राप्त की है। भरतश्रेष्ठ! द्रोणाचार्य और कृपाचार्य से अस्त्र-विद्या प्राप्त करके जाति और बल में हमारे समान होते हुए भी तुमने वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण का आश्रय ले रखा है फिर तुम्हें युद्ध से क्यों डरना या पीछे हटना चाहिये।[3]
श्रीकृष्ण के लिए दुर्योधन का संदेश
उलूक! तुम पाण्डवों के समीप वासुदेव श्रीकृष्ण से भी कहना- जनार्दन! अब तुम पूरी तैयारी और तत्परता के साथ अपनी और पाण्डवों की भलाई के लिये मेरे साथ युद्ध करो। तुमने सभा में माया द्वारा जो विकट रूप बना लिया था; उसे पुन: उसी रूप में प्रकट करके अर्जुन के साथ मुझ पर धावा बोल दो। इन्द्रजाल, माया अथवा भयानक कृत्या- ये युद्ध में हथियार उठाये हुए शूरवीर के क्रोध एवं सिंहनाद को और भी बढ़ा देती है उसे डरा नहीं सकती। हम भी माया से आकाश में उड़ सकते हैं, तथा रसातल या इन्द्रपुरी में भी प्रवेश कर सकते हैं। इतना ही नहीं, हम अपने शरीर में बहुत-से रूप भी प्रकट करके दिखा सकते हैं; परंतु इन सब प्रदर्शनों से न तो अपने अभीष्ट की सिद्धि होती है और न अपना शत्रु ही मानवीय बुद्धि अर्थात भय को प्राप्त हो सकता है। एकमात्र विधाता ही अपने मानसिक संकल्प मात्र से समस्त प्राणियों को वश में कर लेता है। वार्ष्णेय! तुम जो यह कहा करते थे कि मैं युद्ध में धृतराष्ट्र के सभी पुत्रों को मरवाकर उनका सारा उत्तम राज्य कुन्ती के पुत्रों को दे दूँगा। तुम्हारा यह सारा भाषण संजय ने मुझे सुना दिया था। तुमने यह भी कहा था कि ‘कौरवों! मैं जिनका सहायक हूँ, उन्हीं सव्यसाची अर्जुन के साथ तुम्हारा बैर बढ़ रहा है, इत्यादि। अत: अब सत्यप्रतिज्ञ होकर पाण्डवों के लिये पराक्रमी बनो। युद्ध में अब प्रयत्नपूर्वक डट जाओ। हम तुम्हारी राह देखते हैं। अपने पुरुषत्त्व का परिचय दो। जो पुरुष शत्रु को अच्छी तरह समझ-बूझकर विशुद्ध पुरुषार्थ का आश्रय ले शत्रुओं को शोकमग्न कर देता है, वही श्रेष्ठ जीवन व्यतीत करता है। श्रीकृष्ण! मैं देखता हूँ संसार में अकस्मात ही तुम्हारा महान यश फैल गया है; परंतु अब इस समय हमें मालूम हुआ है कि जो लोग तुम्हारे पूजक है, वे वास्तव में पुरुषत्त्व का चिह्न धारण करने वाले हिजडे़ ही हैं। मेरे जैसे राजा को तुम्हारे साथ, विशेषत: कंस के एक सेवक के साथ लड़ने के लिये कवच धारण करके युद्ध भूमि में उतरना किसी तरह उचित नहीं है।[3]
दुर्योधन का भीम, नकुल व सहदेव के लिए संदेश देना
‘उलूक! उस बिना मूँछों के मर्द अथवा बोझ ढोने वाले बैल, अधिक खाने वाले, अज्ञानी और मूर्ख भीमसेन से भी बारंबार मेरा यह संदेश कहना ‘कुन्तीकुमार! पहले विराट नगर में जो तू रसोइया बनकर रहा और बल्लव के नाम से विख्यात हुआ, वह सब मेरा ही पुरुषार्थ था। पहले कौरव सभा में तूने जो प्रतिज्ञा की थी, वह मिथ्या नहीं होनी चाहिये। यदि तुझमें शक्ति हो तो आकर दु:शासन का रक्त पी लेना। कुन्तीकुमार! तुम जो कहा करते हो कि मैं युद्ध में धृतराष्ट्र के पुत्रों को वेगपूर्वक मार डालूंगा, उसका यह समय आ गया है। भारत! तुम निरे भोजनभट्ट हो। अत: अधिक खाने पीने में पुरस्कार पाने के योग्य हो। किंतु कहाँ युद्ध और कहाँ भोजन? शक्ति हो तो युद्ध करो और मर्द बनो। भारत! युद्धभूमि में मेरे हाथ से मारे जाकर तुम गदा को छाती से लगाये सदा के लिये सो जाओगे। वृकोदर! तुमने सभा में जाकर जो उछल-कूद मचायी थी, वह व्यर्थ ही है। उलूक! नकुल से भी कहना- भारत! तुम मेरे कहने से अब स्थिरतापूर्वक युद्ध करो। हम तुम्हारा पुरुषार्थ देखेंगे। तुम युधिष्ठिर के प्रति अपने अनुराग को, मेरे प्रति बढ़े हुए द्वेष को तथा द्रौपदी के क्लेश को भी इन दिनों अच्छी तरह से याद कर लो। उलूक! तुम राजाओं के बीच सहदेव से भी मेरी यह बात कहना पाण्डुनन्दन! पहले के दिये हुए क्लेशों को याद कर लो और अब तत्पर होकर समरभूमि में युद्ध करो।[4]
अन्य राजाओं के लिए संदेश देना
तदनन्तर विराट और द्रुपद से भी मेरी ओर से कहना ‘विधाता ने जब से प्रजा की सृष्टि की है, तभी से परम गुणगान सेवकों ने भी अपने स्वामियों की अच्छी तरह परख नहीं की; उनके गुण-अवगुण को भलीभाँति नहीं पहचाना। इसी प्रकार स्वामियों ने भी सेवकों को ठीक-ठीक नहीं समझा। इसीलिये युधिष्ठिर श्रद्धा के योग्य नहीं है, तो भी तुम दोनों उन्हें अपना राजा मानकर उनकी ओर से युद्ध के लिये यहाँ आये हो। इसलिये तुम सब लोग संगठित होकर मेरे वध के लिये प्रयत्न करो। अपनी और पाण्डवों की भलाई के लिये मेरे साथ युद्ध करो। फिर पांचाल राजकुमार धृष्टद्युम्न को भी मेरा यह संदेश सुना देना- राजकुमार! यह तुम्हारे योग्य समय प्राप्त हुआ है। तुम्हें आचार्य द्रोण अपने सामने ही मिल जायेंगे। समरभूमि में द्रोणाचार्य के सामने जाकर ही तुम यह जान सकोगे कि तुम्हारा उत्तम हित किस बात में है। आओ, अपने सुदृढों के साथ रहकर युद्ध करो और गुरु के वध का अत्यन्त दुष्कर पाप कर डालो। उलूक! इसके बाद तुम शिखण्डी से भी मेरी यह बात कहना- धनुर्धारियों में श्रेष्ठ गंगापुत्र कुरुवंशी महाबाहु भीष्म तुम्हें स्त्री समझकर नहीं मारेंगे। इसलिये तुम अब निर्भय होकर युद्ध करना और समरभूमि में यत्नपूर्वक पराक्रम प्रकट करना। हम तुम्हारा पुरुषार्थ देखेंगे।' ऐसा कहते-कहते राजा दुर्योधन खिल खिलाकर हंस पड़ा।[4]
दुर्योधन का अर्जुन के लिए संदेस देना
दुर्योधन उलूक से पुन: इस प्रकार बोला- उलूक! तुम वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण के सामने ही अर्जुन से पुन: इस प्रकार कहना। वीर धनंजय! या तो तुम्हीं हम लोगों को परास्त करके इस पृथ्वी का शासन करो या हमारे ही हाथों से मारे जाकर रणभूमि में सदा के लिये सो जाओ। पाण्डुनन्दन! राज्य से निर्वासित होने, वन में निवास करने तथा द्रौपदी के अपमानित होने के क्लशों को याद करके अब भी तो मर्द बनो। क्षत्राणी जिसके लिये पुत्र पैदा करती है, वह सब प्रयोजन सिद्ध करने का यह समय आ गया है। तुम युद्ध में बल, पराक्रम, उत्तम शौर्य, अस्त्र-संचालन की फुर्ती और पुरुषार्थ दिखाते हुए अपने बढे़ हुए क्रोध को हमारे ऊपर प्रयोग करके शान्त कर लो।[4] जिसे नाना प्रकार का क्लेश दिया गया हो, दीर्घकाल के लिये राज्य से निर्वासित किया गया हो तथा जिसे राज्य से वंचित होकर दीनभाव से जीवन बिताना पड़ा हो, ऐसे किस स्वाभिमानी पुरुष का हृदय विदीर्ण न हो जायेगा। जो उत्तम कुल में उत्पन्न, शूरवीर तथा पराये धन के प्रति लोभ न रखने वाला हो, उसके राज्य को यदि कोई दबा बैठा हो तो वह किस वीर के क्रोध को उद्दीप्त न कर देगा। तुमने जो बड़ी-बड़ी बातें कही हैं, उन्हें कार्यरूप में परिणत करके दिखाओ! जो क्रिया द्वारा कुछ न करके केवल मुंह से बातें बनाता है, उसे सज्जन पुरुष कायर मानते हैं। तुम्हारा स्थान और राज्य शत्रुओं के हाथ में पड़ा है, उसका पुनरुद्धार करो। युद्ध की इच्छा रखने वाले पुरुष के ये दो ही प्रयोजन होते हैं; अत: उनकी सिद्धि के लिये पुरुषार्थ करो। तुम जूए में पराजित हुए और तुम्हारी स्त्री द्रौपदी को सभा में लाया गया। अपने को पुरुष मानने वाले किसी भी मनुष्य को इन बातों के लिये भारी अमर्ष हो सकता है। तुम बारह वर्षों तक राज्य से निर्वासित होकर वन में रहे हो और एक वर्ष तक तुम्हें विराट का दास होकर रहना पड़ा है।
पाण्डुनन्दन! राज्य से निर्वासन का, वनवास का और द्रौपदी के अपमान का क्लेश याद करके तो मर्द बनो। हम लोग बार-बार तुम लोगों के प्रति अप्रिय वचन कहते हैं। तुम हमारे ऊपर अपना अमर्ष तो दिखाओ। क्योंकि अमर्ष ही पौरुष है। पार्थ! यहाँ लोग तुम्हारे क्रोध, बल, वीर्य, ज्ञान योग और अस्त्र चलाने की फुर्ती आदि गुणों को देखें। युद्ध करो और अपने पुरुषत्व का परिचय दो। अब लोहमय अस्त्र–शस्त्रों को बाहर निकालकर तैयार करने का कार्य पूरा हो चुका है। कुरुक्षेत्र की कीच भी सूख गयी है। तुम्हारे घोडे़ खूब हष्ट-पुष्ट हैं और सैनिकों का भी तुमने अच्छी तरह भरण-पोषण किया है; अत: कल सवेरे से ही श्रीकृष्ण के साथ आकर युद्ध करो। अभी युद्ध में भीष्म जी के साथ मुठभेड़ किये बिना तुम क्यों अपनी झूठी प्रशंसा करते हो? कुन्तीनन्दन! जैसे कोई शक्तिहीन एवं मन्दबुद्धि पुरुष गन्धमादन पर्वत पर चढ़ना चाहता हो, उसी प्रकार तुम भी अपनी झूठी बड़ाई करते हो। मिथ्या आत्मप्रशंसा न करके पुरुष बनो। पार्थ! अत्यन्त दुर्जय वीर सूतपुत्र कर्ण, बलवानों से श्रेष्ठ शल्य तथा युद्ध में इन्द्र के समान पराक्रमी एवं बलवानों में अग्रगण्य द्रोणाचार्य को युद्ध में परास्त किये बिना तुम यहाँ राज्य कैसे लेना चाहते हो। कुन्तीपुत्र! आचार्य द्रोण ब्रह्मवेद और धनुर्वेद इन दोनों के पारंगत पण्डित हैं। ये युद्ध का भार वहन करने में समर्थ, अक्षोभ्य, सेना के मध्य भाग में विचरने वाले तथा युद्ध के मैदान से पीछे न हटने वाले हैं। इन महातेजस्वी द्रोण को जो तुम जीतने की इच्छा रखते हो, वह मिथ्या साहस मात्र है। वायु ने सुमेरू पर्वत को उखाड़ फेंका हो, यह कभी हमारे सुनने में नहीं आया है इसी प्रकार तुम्हारे लिये भी आचार्य को जीतना असम्भव है। तुमने मुझसे जो कुछ कहा है, वह यदि सत्य हो जाय, तब तो हवा मेरु को उठाले, स्वर्गलोक इस पृथ्वी पर गिर पड़े अथवा युग ही बदल जाय। अर्जुन हो या दूसरा कोई, जीवन की इच्छा रखने वाला कौन ऐसा वीर है, जो युद्ध में इन शत्रुदमन आचार्य के पास पहुँचकर कुशलपूर्वक घर को लौट सके। ये दोनों द्रोण और भीष्म जिसे मारने का निश्चय कर लें अथवा उनके भयानक अस्त्र आदि से जिसके शरीर का स्पर्श हो जाय, ऐसा कोई भी भूतल निवासी मरणधर्मा मनुष्य युद्ध में जीवित कैसे बच सकता है? जैसे देवता स्वर्ग की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर दिशाओं के नरेश तथा काम्बोज, शक, खश, शाल्व, मत्स्य, कुरु और मध्यप्रदेश के सैनिक एवं मलेच्छ, पुलिन्द, द्रविद, आन्ध्र और कांचीदेशीय योद्धा जिस सेना की रक्षा करते हैं, जो देवताओं की सेना के समान दुर्धर्ष एवं संगठित है, कौरवराज की समुद्रतुल्य उस सेना को क्या तुम कूपमण्डूक की भाँति अच्छी तरह समझ नहीं पाते हैं?[5]
ओ अल्पबुद्धि मूढ़ अर्जुन! जिसका वेग युद्धकाल में गंगा के वेग के समान बढ़ जाता है और जिसे पार करना असम्भव है, नाना प्रकार के जनसमुदाय से भरी हुई मेरी उस विशाल वाहिनी के साथ तथा गज सेना के बीच में खड़े हुए मुझ दुर्योधन के साथ भी तुम युद्ध की इच्छा कैसे रखते हो? भारत! हम अच्छी तरह जानते हैं कि तुम्हारे पास अक्षय बाणों से भरे हुए दो तरकस हैं, अग्निदेव का दिया हुआ दिव्य रथ है और युद्धकाल में उस पर दिव्य ध्वजा फहराने लगती है। अर्जुन! बातें न बनाकर युद्ध करो। बहुत शेखी क्यों बघारते हो, विभिन्न प्रकारों से युद्ध करने पर ही राज्य की सिद्धि हो सकती है। झूठी आत्मप्रशंसा करने से इस कार्य में सफलता नहीं मिल सकती। धनंजय! यदि जगत में अपनी झूठी प्रशंसा करने से ही अभीष्ट कार्य की सिद्धि हो जाती, तब तो सब लोग सिद्ध काम हो जाते; क्योंकि बातें बनाने में कौन दरिद्र और दुर्बल होगा। मैं जानता हूँ कि तुम्हारे सहायक वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण हैं, मैं यह भी जानता हूँ कि तुम्हारे पास चार हाथ लंबा गाण्डीव धनुष है तथा मुझे यह भी मालूम है कि तुम्हारे जैसा दूसरा कोई योद्धा नहीं है; यह सब जानकर भी मैं तुम्हारे इस राज्य का अपहरण करता हूँ। कोई भी मनुष्य नाम मात्र के धर्म द्वारा सिद्धि नहीं पाता, केवल विधाता ही मानसिक संकल्प मात्र से सबको अपने अनुकूल और अधीन कर लेता है। तुम रोते-बिलखते रह गये और मैंने तेरह वर्षों तक तुम्हारा राज्य भोगा। अब भाइयों सहित तुम्हारा वध करके आगे भी मैं ही इस राज्य का शासन करुंगा। दास अर्जुन! जब तुम जुए के दांव पर जीत लिये गये, उस समय तुम्हारा गाण्डीव धनुष कहाँ था भीमसेन का बल भी उस समय कहाँ चला गया था। गदाधारी भीमसेन अथवा गाण्डीवधारी अर्जुन से भी उस समय सती साध्वी द्रौपदी का सहारा लिये बिना तुम लोगों का दास भाव से उद्धार न हो सका। तुम सब लोग अमनुष्योचित दीन दशा को प्राप्त हो दास भाव में स्थित थे। उस समय द्रुपदकुमारी कृष्णा ने ही दासता के संकट में पड़े हुए तुम सब लोगों को छुड़ाया था। मैंने जो उन दिनों तुम लोगों को हिजड़ा या नपुंसक कहा था, वह ठीक ही निकला; क्योंकि अज्ञातवास के समय विराट नगर में अर्जुन को अपने सिर पर स्त्रियों की भाँति वेणी धारण करनी पड़ी। कुन्तीकुमार! तुम्हारे भाई भीमसेन को राजा विराट के रसोई घर में रसोइये के काम में ही संलग्न रहकर जो भारी श्रम उठाना पड़ा, वह सब मेरा ही पुरुषार्थ है। इसी प्रकार सदा से ही क्षत्रियों ने अपने विरोधी क्षत्रिय को दण्ड दिया है। इसीलिये तुम्हें भी सिर पर वेणी रखाकर और हिजड़ों का वेष बनाकर राजा के अन्त:पुर में लड़कियों को नचाने का काम करना पड़ा।
फाल्गुन! श्रीकृष्ण के या तुम्हारे भय से मैं राज्य नहीं लौटाऊँगा। तुम श्रीकृष्ण के साथ आकर युद्ध करो। माया, इन्द्रजाल अथवा भयानक छलना संग्रामभूमि में हथियार उठाये हुए वीर के क्रोध और सिंहनाद को ही बढ़ाती है उसे भयभीत नहीं कर सकती हैं। हजारों श्रीकृष्ण और सैंकडों अर्जुन भी अमोघ बाणों वाले मुझ वीर के पास आकर दसों दिशाओं में भाग जायेंगे। तुम भीष्म के साथ युद्ध करो या सिर से पहाड़ फोड़ो या सैनिकों के अत्यन्त गहरे महासागर को दोनों बाँहों से तैरकर पार करो। हमारे सैन्यरूपी महासमुद्र में कृपाचार्य महामत्स्य के समान हैं, विविंशति उसके भीतर रहने वाला महान सर्प है, बृहद्बल उसके भीतर उठने वाले विशाल ज्वार के समान है, भूरिश्रवा तिमिंगल नामक मत्स्य के स्थान में है। भीष्म उसके असीम वेग है, द्रोणाचार्यरूपी ग्राह के होने से इस सैन्यसागर में प्रवेश करना अत्यन्त दुष्कर है, कर्ण और शल्य क्रमश: मत्स्य तथा आवर्त (भंवर) का काम करते हैं और काम्बोजराज सुदक्षिण इसमें बड़बानल हैं। दु:शासन उसके तीव्र प्रवाह के समान है, शल और शल्य मत्स्य है, सुषेण और चित्रायुध नाग और मकर के समान हैं, जयद्रथ पर्वत है, पुरुमित्र उसकी गम्भीरता है, दुर्मर्षर्ण जल है और शकुनि प्रपात (झरने) का काम देता है। भाँति-भाँति के शस्त्र इस सैन्यसागर के जल प्रवाह है। यह अक्षय होने के साथ ही खूब बढ़ा हुआ है। इसमें प्रवेश करने पर अधिक श्रम के कारण जब तुम्हारी चेतना नष्ट हो जायेगी, तुम्हारे समस्त बन्धु मार दिये जायेंगे, उस समय तुम्हारे मन को बड़ा संताप होगा। पार्थ! जैसे अपवित्र मनुष्य का मन स्वर्ग की ओर से निवृत्त हो जाता है क्योंकि उसके लिये स्वर्ग की प्राप्ति असम्भव है, उसी प्रकार तुम्हारा मन भी उस समय इस पृथ्वी पर राज्य शासन करने से निराश होकर निवृत्त जायेगा। अर्जुन! शान्त होकर बैठ जाओ। राज्य तुम्हारे लिये अत्यन्त दुर्लभ है। जिसने तपस्या नहीं की है, वह जैसे स्वर्ग पाना चाहे, उसी प्रकार तुमने भी राज्य की अभिलाषा की है।[6]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 160 श्लोक 1-22
- ↑ महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 160 श्लोक 23-43
- ↑ 3.0 3.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 160 श्लोक 44-63
- ↑ 4.0 4.1 4.2 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 160 श्लोक 64-83
- ↑ महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 160 श्लोक 84-103
- ↑ महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 160 श्लोक 104-125
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| नहुष का इन्द्राणी को काल अवधि देना
| इंद्र का ब्रह्म हत्या से उद्धार
| शची द्वारा रात्रि देवी की उपासना
| उपश्रुति देवी की मदद से इंद्र-इंद्राणी की भेंट
| इंद्राणी के अनुरोध पर नहुष का ऋषियों को अपना वाहन बनाना
| बृहस्पति और अग्नि का संवाद
| बृहस्पति द्वारा अग्नि और इंद्र का स्तवन
| बृहस्पति एवं लोकपालों की इंद्र से वार्तालाप
| अगस्त्य का इन्द्र से नहुष के पतन का वृत्तांत बताना
| इंद्र का स्वर्ग में राज्य पालन
| शल्य का युधिष्ठिर आश्वासन देना
| युधिष्ठिर और दुर्योधन की सेनाओं का संक्षिप्त वर्णन
संजययान पर्व
द्रुपद के पुरोहित का कौरव सभा में भाषण
| भीष्म द्वारा पुरोहित का समर्थन एवं अर्जुन की प्रशंसा
| कर्ण के आक्षेपपूर्ण वचन
| धृतराष्ट्र द्वारा दूत को सम्मानित करके विदा करना
| धृतराष्ट्र का संजय से पाण्डवों की प्रतिभा का वर्णन
| धृतराष्ट्र का पाण्डवों को संदेश
| संजय का युधिष्ठिर से मिलकर कुशलक्षेम पूछना
| युधिष्ठिर का संजय से कौरव पक्ष का कुशलक्षेम पूछना
| संजय द्वारा युधिष्ठिर को धृतराष्ट्र का संदेश सुनाने की प्रतिज्ञा करना
| युधिष्ठिर का संजय को इंद्रप्रस्थ लौटाने की कहना
| संजय का युधिष्ठिर को युद्ध में दोष की संभावना बताना
| संजय को युधिष्ठिर का उत्तर
| संजय को श्रीकृष्ण का धृतराष्ट्र के लिए चेतावनी देना
| संजय की विदाई एवं युधिष्ठिर का संदेश
| युधिष्ठिर का कुरुवंशियों के प्रति संदेश
| अर्जुन द्वारा कौरवों के लिए संदेश
| संजय का धृतराष्ट्र के कार्य की निन्दा करना
प्रजागर पर्व
धृतराष्ट्र-विदुर संवाद
| धृतराष्ट्र के प्रति विदुर के नीतियुक्त वचन
| विदुर द्वारा सुधंवा-विरोचन विवाद का वर्णन
| विदुर का धृतराष्ट्र को धर्मोपदेश
| दत्तात्रेय एवं साध्य देवताओं का संवाद
| विदुर द्वारा धृतराष्ट्र को समझाना
| धृतराष्ट्र के प्रति विदुर का हितोपदेश
| विदुर के नीतियुक्त उपदेश
| धृतराष्ट्र के प्रति विदुर का नीतियुक्त उपदेश
| विदुर द्वारा धर्म की महत्ता का प्रतिपादन
| विदुर द्वारा चारों वर्णों के धर्म का सक्षिप्त वर्णन
सनत्सुजात पर्व
विदुर द्वारा सनत्सुजात से उपदेश देने के लिए प्रार्थना
| सनत्सुजात द्वारा धृतराष्ट्र के प्रश्नों का उत्तर
| ब्रह्मज्ञान में मौन, तप तथा त्याग आदि के लक्षण
| सनत्सुजात द्वारा ब्रह्मचर्य तथा ब्रह्म का निरुपण
| गुण दोषों के लक्षण एवं ब्रह्मविद्या का प्रतिपादन
| योगीजनों द्वारा परमात्मा के साक्षात्कार का प्रतिपादन
यानसंधि पर्व
संजय का कौरव सभा में आगमन
| संजय द्वारा कौरव सभा में अर्जुन का संदेश सुनाना
| भीष्म का दुर्योधन से कृष्ण और अर्जुन की महिमा का बखान
| भीष्म का कर्ण पर आक्षेप और द्रोणाचार्य द्वारा भीष्मकथन का अनुमोदन
| संजय द्वारा युधिष्ठिर के प्रधान सहायकों का वर्णन
| भीमसेन के पराक्रम से धृतराष्ट्र का विलाप
| धृतराष्ट्र द्वारा अर्जुन से प्राप्त होने वाले भय का वर्णन
| कौरव सभा में धृतराष्ट्र द्वारा शान्ति का प्रस्ताव
| संजय द्वारा धृतराष्ट्र को उनके दोष बताना तथा सलाह देना
| दुर्योधन का धृतराष्ट्र से अपने उत्कर्ष और पांडवों के अपकर्ष का वर्णन
| संजय द्वारा अर्जुन के ध्वज एवं अश्वों का वर्णन
| संजय द्वारा युधिष्ठिर के अश्वों का वर्णन
| संजय द्वारा पांडवों की युद्ध विषयक तैयारी का वर्णन और धृतराष्ट्र का विलाप
| दुर्योधन द्वारा अपनी प्रबलता का प्रतिपादन और धृतराष्ट्र का उस पर अविश्वास
| संजय द्वारा धृष्टद्युम्न की शक्ति एवं संदेश का कथन
| धृतराष्ट्र का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना
| दुर्योधन का अहंकारपूर्वक पांडवों से युद्ध का निश्चय
| धृतराष्ट्र का अन्य योद्धाओं को युद्ध से भय दिखाना
| संजय द्वारा धृतराष्ट्र को कृष्ण और अर्जुन के संदेश सुनाना
| धृतराष्ट्र द्वारा कौरव-पांडव शक्ति का तुलनात्मक वर्णन
| दुर्योधन की आत्मप्रशंसा
| कर्ण की आत्मप्रशंसा एवं भीष्म द्वारा उस पर आक्षेप
| कर्ण द्वारा कौरव सभा त्यागकर जाना
| दुर्योधन द्वारा अपने पक्ष की प्रबलता का वर्णन
| विदुर का दम की महिमा बताना
| विदुर का धृतराष्ट्र से कौटुम्बिक कलह से हानि बताना
| धृतराष्ट्र का दुर्योधन को समझाना
| संजय का धृतराष्ट्र को अर्जुन का संदेश सुनाना
| धृतराष्ट्र के पास व्यास और गांधारी का आगमन
| संजय का धृतराष्ट्र को कृष्ण की महिमा बताना
| संजय द्वारा धृतराष्ट्र को कृष्णप्राप्ति एवं तत्त्वज्ञान का साधन बताना
| कृष्ण के विभिन्न नामों की व्युत्पत्तियों का कथन
| धृतराष्ट्र द्वारा भगवद्गुणगान
भगवद्यान पर्व
युधिष्ठिर का कृष्ण से अपना अभिप्राय निवेदन करना
| कृष्ण का शांतिदूत बनकर कौरव सभा में जाने का निश्चय
| कृष्ण का युधिष्ठिर को युद्ध के लिए प्रोत्साहन देना
| भीमसेन का शांति विषयक प्रस्ताव
| कृष्ण द्वारा भीमसेन को उत्तेजित करना
| कृष्ण को भीमसेन का उत्तर
| कृष्ण द्वारा भीमसेन को आश्वासन देना
| अर्जुन का कथन
| कृष्ण का अर्जुन को उत्तर देना
| नकुल का निवेदन
| सहदेव तथा सात्यकि की युद्ध हेतु सम्मति
| द्रौपदी का कृष्ण को अपना दु:ख सुनाना
| कृष्ण द्वारा द्रौपदी को आश्वासन
| कृष्ण का हस्तिनापुर को प्रस्थान
| युधिष्ठिर का कुन्ती एवं कौरवों के लिए संदेश
| कृष्ण को मार्ग में दिव्य महर्षियों का दर्शन
| वैशम्पायन द्वारा मार्ग के शुभाशुभ शकुनों का वर्णन
| कृष्ण का मार्ग में लोगों द्वारा आदर-सत्कार
| कृष्ण का वृकस्थल पहुँचकर विश्राम करना
| दुर्योधन का कृष्ण के स्वागत-सत्कार हेतु मार्ग में विश्रामस्थान बनवाना
| धृतराष्ट्र का कृष्ण की अगवानी करके उन्हें भेंट देने का विचार
| विदुर का धृतराष्ट्र को कृष्णआज्ञा का पालन करने के लिए समझाना
| दुर्योधन का कृष्ण के विषय में अपने विचार कहना
| दुर्योधन की कुमन्त्रणा से भीष्म का कुपित होना
| हस्तिनापुर में कृष्ण का स्वागत
| धृतराष्ट्र एवं विदुर के यहाँ कृष्ण का आतिथ्य
| कुन्ती का कृष्ण से अपने दु:खों का स्मरण करके विलाप करना
| कृष्ण द्वारा कुन्ती को आश्वासन देना
| कृष्ण का दुर्योधन के भोजन निमंत्रण को अस्वीकार करना
| कृष्ण का विदुर के घर पर भोजन करना
| विदुर का कृष्ण को कौरवसभा में जाने का अनौचित्य बतलाना
| कृष्ण का कौरव-पांडव संधि के प्रयत्न का औचित्य बताना
| कृष्ण का कौरवसभा में प्रवेश
| कौरवसभा में कृष्ण का स्वागत और उनके द्वारा आसनग्रहण
| कौरवसभा में कृष्ण का प्रभावशाली भाषण
| परशुराम द्वारा नर-नारायणरूप कृष्ण-अर्जुन का महत्त्व वर्णन
| कण्व मुनि का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना
| कण्व मुनि द्वारा मातलि का उपाख्यान आरम्भ करना
| मातलि का नारद संग वरुणलोक भ्रमण एवं अनेक आश्चर्यजनक वस्तुएँ देखना
| नारद द्वारा पाताललोक का प्रदर्शन
| नारद द्वारा हिरण्यपुर का दिग्दर्शन और वर्णन
| नारद द्वारा गरुड़लोक तथा गरुड़ की संतानों का वर्णन
| नारद द्वारा सुरभि तथा उसकी संतानों का वर्णन
| नारद द्वारा नागलोक के नागों का वर्णन
| मातलि का नागकुमार सुमुख के साथ पुत्री के विवाह का निश्चय
| नारद का नागराज आर्यक से सुमुख तथा मातलि कन्या के विवाह का प्रस्ताव
| विष्णु द्वारा सुमुख को दीर्घायु देना तथा सुमुख-गुणकेशी विवाह
| विष्णु द्वारा गरुड़ का गर्वभंजन
| दुर्योधन द्वारा कण्व मुनि के उपदेश की अवहेलना
| नारद का दुर्योधन से धर्मराज द्वारा विश्वामित्र की परीक्षा लेने का वर्णन
| गालव द्वारा विश्वामित्र से गुरुदक्षिणा माँगने के लिए हठ का वर्णन
| गालव की चिन्ता और गरुड़ द्वारा उन्हें आश्वासन देना
| गरुड़ का गालव से पूर्व दिशा का वर्णन करना
| गरुड़ का गालव से दक्षिण दिशा का वर्णन करना
| गरुड़ का गालव से पश्चिम दिशा का वर्णन करना
| गरुड़ का गालव से उत्तर दिशा का वर्णन करना
| गरुड़ पर सवार गालव का उनके वेग से व्याकुल होना
| गरुड़ और गालव की तपस्विनी शाण्डिली से भेंट
| गरुड़ और गालव का ययाति के यहाँ आगमन
| ययाति द्वारा गालव को अपनी कन्या देना
| हर्यश्व का ययातिकन्या से वसुमना नामक पुत्र उत्पन्न करना
| दिवोदास का ययातिकन्या से प्रतर्दन नामक पुत्र उत्पन्न करना
| उशीनर का ययातिकन्या से शिबि नामक पुत्र उत्पन्न करना
| गालव द्वारा ययातिकन्या को विश्वामित्र की सेवा में देना
| ययातिकन्या माधवी का वन में जाकर तपस्या करना
| ययाति का स्वर्ग में सुखभोग तथा मोहवश तेजोहीन होना
| ययाति का स्वर्गलोक से पतन
| ययाति के दौहित्रों तथा गालव द्वारा उन्हें पुन: स्वर्गलोक भेजने का प्रयास
| ययाति का फिर से स्वर्गारोहण
| स्वर्गलोक में ययाति का स्वागत
| नारद द्वारा दुर्योधन को समझाना
| धृतराष्ट्र के अनुरोध से कृष्ण का दुर्योधन को समझाना
| भीष्म, द्रोण, विदुर और धृतराष्ट्र का दुर्योधन को समझाना
| भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को पुन: समझाना
| दुर्योधन द्वारा पांडवों को राज्य न देने का निश्चय
| कृष्ण का दुर्योधन को फटकारना
| कृष्ण द्वारा धृतराष्ट्र को दुर्योधन आदि को कैद करने की सलाह
| गांधारी का दुर्योधन को समझाना
| सात्यकि द्वारा दुर्योधन के षड़यंत्र का भंडाफोड़
| धृतराष्ट्र और विदुर का दुर्योधन को पुन: समझाना
| कृष्ण का विश्वरूप
| कृष्ण का कौरवसभा से प्रस्थान
| कुंती का पांडवों के लिये संदेश
| कुंती द्वारा विदुलोपाख्यान का प्रारम्भ
| विदुला का पुत्र को युद्ध हेतु उत्साहित करना
| विदुला और उसके पुत्र का संवाद
| विदुला द्वारा कार्य में सफलता प्राप्ति और शत्रुवशीकरण उपायों का निर्देश
| विदुला के उपदेश से उसके पुत्र का युद्ध हेतु उद्यत होना
| कुंती का संदेश तथा कृष्ण का उनसे विदा लेना
| भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को समझाना
| द्रोणाचार्य का दुर्योधन को पुन: संधि के लिए समझाना
| कृष्ण का कर्ण को पांडवपक्ष में आने के लिए समझाना
| कर्ण का दुर्योधन के पक्ष में रहने का निश्चित विचार
| कर्ण द्वारा कृष्ण से समरयज्ञ के रूपक का वर्णन
| कृष्ण का कर्ण से पांडवपक्ष की निश्चित विजय का प्रतिपादन
| कर्ण द्वारा कृष्ण से पांडवों की विजय और कौरवों की पराजय दर्शाने वाले लक्षणों का वर्णन
| कर्ण द्वारा कृष्ण से अपने स्वप्न का वर्णन
| कुंती का कर्ण के पास जाना
| कुंती का कर्ण से पांडवपक्ष में मिल जाने का अनुरोध
| कर्ण की अर्जुन को छोड़कर शेष पांडवों को न मारने की प्रतिज्ञा
| कृष्ण का युधिष्ठिर से कौरवसभा में व्यक्त किये भीष्म के वचन सुनाना
| कृष्ण द्वारा द्रोणाचार्य, विदुर तथा गांधारी के महत्त्वपूर्ण वचनों का वर्णन
| दुर्योधन के प्रति धृतराष्ट्र के युक्तिसंगत वचनों का वर्णन
| कृष्ण का कौरवों के प्रति दण्ड के प्रयोग पर जोर देना
सैन्यनिर्याणपर्व
पांडवपक्ष के सेनापति का चुनाव
| पांडव सेना का कुरुक्षेत्र में प्रवेश
| कुरुक्षेत्र में पांडव सेना का पड़ाव तथा शिविर निर्माण
| दुर्योधन द्वारा सेना को सुसज्जित होने और शिविर निर्माण का आदेश
| कृष्ण का युधिष्ठिर से युद्ध को ही कर्तव्य बताना
| युधिष्ठिर का संताप और अर्जुन द्वारा कृष्ण के वचनों का समर्थन
| दुर्योधन द्वारा सेनाओं का विभाजन और सेनापतियों का अभिषेक
| दुर्योधन द्वारा भीष्म का सेनापति पद पर अभिषेक
| युधिष्ठिर द्वारा अपने सेनापतियों का अभिषेक
| बलराम का पांडव शिविर में आगमन और तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान
| रुक्मी का सहायता हेतु पांडवों और कौरवों के पास आगमन
| धृतराष्ट्र और संजय का संवाद
उलूकदूतागमनपर्व
दुर्योधन का उलूक को दूत बनाकर पांडवों के पास भेजना
| पांडव शिविर में उलूक द्वारा दुर्योधन का संदेश सुनाना
| पांडवों की ओर से दुर्योधन को उसके संदेश का उत्तर
| पंडवों का संदेश लेकर उलूक का लौटना
| धृष्टद्युम्न द्वारा योद्धाओं की नियुक्ति
रथातिरथसंख्यानपर्व
भीष्म द्वारा कौरव पक्ष के रथियों और अतिरथियों का परिचय
| कौरव पक्ष के रथियों का परिचय
| कौरव पक्ष के रथी, महारथी और अतिरथियों का वर्णन
| कर्ण और भीष्म का रोषपूर्वक संवाद
| भीष्म द्वारा पांडव पक्ष के रथी और उनकी महिमा का वर्णन
| पांडव पक्ष के महारथियों का वर्णन तथा विराट और द्रुपद की प्रशंसा
| पांडव पक्ष के रथी, महारथी एवं अतिरथी आदि का वर्णन
| भीष्म का शिखण्डी और पांडवों का वध न करने का कथन
अम्बोपाख्यानपर्व
भीष्म द्वारा काशीराज की कन्याओं का अपहरण
| अम्बा का भीष्म से शाल्वराज के प्रति अनुराग प्रकट करना
| अम्बा का शाल्व द्वारा परित्याग
| अम्बा और शैखावत्य संवाद
| होत्रवाहन तथा अकृतव्रण का आगमन और उनका अम्बा से वार्तालाप
| अकृतव्रण और परशुराम का अम्बा से वार्तालाप
| अम्बा और परशुराम का संवाद तथा अकृतव्रण की सलाह
| परशुराम और भीष्म का रोषपूर्ण वार्तालाप
| परशुराम और भीष्म का युद्ध हेतु कुरुक्षेत्र में उतरना
| परशुराम के साथ भीष्म द्वारा युद्ध प्रारम्भ करना
| परशुराम और भीष्म का घोर युद्ध
| भीष्म और परशुराम का युद्ध
| भीष्म को प्रस्वापनास्त्र की प्राप्ति
| भीष्म तथा परशुराम द्वारा शक्ति और ब्रह्मास्त्र का प्रयोग
| भीष्म और परशुराम के युद्ध की समाप्ति
| अम्बा की कठोर तपस्या
| अम्बा को महादेव से वरप्राप्ति तथा उसका चिता में प्रवेश
| अम्बा का द्रुपद का यहाँ जन्म और शिखण्डी नामकरण
| शिखण्डी का विवाह और दशार्णराज का कोप
| हिरण्यवर्मा के आक्रमण से द्रुपद का घबराना
| द्रुपद द्वारा नगररक्षा की व्यवस्था और देवाराधन
| शिखण्डिनी का वनगमन और स्थूणाकर्ण यक्ष से प्रार्थना
| शिखण्डी को पुरुषत्व की प्राप्ति
| स्थूणाकर्ण को कुबेर का शाप
| भीष्म का शिखण्डी को न मारने का निश्चय
| भीष्म आदि द्वारा अपनी-अपनी शक्ति का वर्णन
| अर्जुन द्वारा अपने सहायकों और युधिष्ठिर की शक्ति का परिचय देना
| कौरव सेना का रण के लिए प्रस्थान
| पांडव सेना का युद्ध के लिए प्रस्थान
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