ययाति द्वारा गालव को अपनी कन्या देना

गरुड़ द्वारा राजर्षि ययाति से गालव के लिये निवेदन करना और कहना कि राजा ये गालव महान शोक से संतप्त हैं और गुरुदक्षिणा चुकाने में असमर्थ हो गए हैं और इसलिए आपकी शरण में आए हैं ये आपसे भिक्षा ग्रहण करके अपने गुरु को धन देकर क्लेश रहित होकर महान तप में संलग्न हो जाएँगे। ये दान लेने के सुयोग्य पात्र हैं और आप दान करने के श्रेष्ठ अधिकारी हैं। यह सुनकर ययाति द्वारा दान में गालव को अपनी कन्या देना का वर्णन महाभारत उद्योग पर्व में भगवद्यान पर्व के अंतर्गत 115 वें अध्याय में हुआ है, जो इस प्रकार है-[1]

ययाति द्वारा गालव को अपनी कन्या देना

नारदजी कहते हैं- गरुड़ ने जब इस प्रकार यथार्थ और उत्तम बात कही, तब सहसत्रों यज्ञों का अनुष्ठान करने वाले, दाता, दानपति, प्रभावशाली तथा राजोचित तेज से प्रकाशित होने वाले सम्पूर्ण नरेशों के स्वामी महाराज ययाति ने सावधानी के साथ बारंबार विचार करके एक निश्चय पर पहुँचकर इस प्रकार कहा। राजा ने पहले अपने प्रिय मित्र गरुड़ तथा तपस्या के मूर्तिमान स्वरूप विप्रवर गालव को अपने यहाँ उपस्थित देख और उनकी बताई हुई स्पृहणीय भिक्षा की बात सुनकर मन में इस प्रकार विचार किया- 'ये दोनों सूर्यवंश में उत्पन्न हुए दूसरे अनेक राजाओं को छोड़कर मेरे पास आए हैं।'

ऐसा विचार करके वे बोले- 'निष्पाप गरुड़! आज मेरा जन्म सफल हो गया। आज मेरे कुल का उद्धार हो गया और आज आपने मेरे इस सम्पूर्ण देश को भी तार दिया। 'सखे! फिर भी मैं एक बात कहना चाहता हूँ। आप पहले से मुझे जैसा धनवान समझते है, वैसा धनसंपन्न अब मैं नहीं रह गया हूँ। मित्र! मेरा वैभव इन दिनों क्षीण हो गया है। 'आकाशचारी गरुड़! इस दशा में भी मैं आपके आगमन को निष्फल करने में असमर्थ हूँ और इन ब्रह्मर्षि की आशा को भी मैं विफल करना नहीं चाहता। 'अत: मैं एक ऐसी वस्तु दूंगा, जो इस कार्य का सम्पादन कर देगी। अपने पास आकर कोई याचक हताश हो जाये तो वह लौटने पर आशा भंग करने वाले राजा के समूचे कुल को दग्ध कर देता है। 'विनतानन्दन! लोक में कोई 'दीजिये' कहकर कुछ मांगे और उससे यह कह दिया जाए की जाओ मेरे पास नहीं है, इस प्रकार याचक की आशा को भंग करने से जितना पाप लगता है, इससे बढ़कर पाप की दूसरी कोई बात नहीं कही जाती है। 'कोई श्रेष्ठ मनुष्य जब कहीं याचना करके हताश एवं असफल होता है, तब वह मरे हुए के समान हो जाता है और अपना हित न करने वाले धनी के पुत्रों तथा पौत्रों का नाश कर डालता है। 'अत: मेरी जो यह पुत्री है, यह चार कुलों की स्थापना करने वाली है। इसकी कान्ति देवकन्या के समान है। यह सम्पूर्ण धर्मों की वृद्धि करने वाली है। 'गालव! इसके रूप-सौन्दर्य से आकृष्ट होकर देवता, मनुष्य तथा असुर सभी लोग सदा इसे पाने की अभिलाषा रखते हैं अत: आप मेरी इस पुत्री को ही ग्रहण कीजिये। 'इसके शुल्क के रूप में राज लोग निश्चय ही अपना राज्य भी आपको दे देंगे फिर आठ सौ श्यामकर्ण घोड़ों की तो बात ही क्या है? 'अत: प्रभो! आप मेरी इस पुत्री माधवी को ग्रहण करें और मुझे यह वर दें कि मैं दौहित्रवान[2] होऊँ।

तब गरुड़ सहित गालव ने उस कन्या को लेकर कहा- 'अच्छा, हम फिर कभी मिलेंगे।' राजा से ऐसा कहकर गालव मुनि कन्या के साथ वहाँ से चल दिये। तदनंतर गरुड़ भी यह कहकर कि अब तुम्हें घोड़ों की प्राप्ति का यह द्वार प्राप्त हो गया, गालव से विदा ले अपने घर को चले गए।

गालव का अयोध्यानरेश के यहाँ जाना

पक्षीराज गरुड़ के चले जाने पर गालव उस कन्या के साथ यह सोचते हुए चल दिये कि राजाओं में से कौन ऐसा नरेश है, जो इस कन्या का शुल्क देने में समर्थ हो। वे मन-ही-मन विचार करके अयोध्या में इक्ष्वाकुवंशी नृपतिशिरोमणि महापराक्रमी हर्यश्व के पास गए, जो चतुरंगिणी सेना से सम्पन्न थे। वे कोष, धन-धान्य और सैनिक बल- सबसे सम्पन्न थे। पुरवासी प्रजा उन्हें बहुत ही प्रिय थी। ब्राह्मणों के प्रति उनका अधिक प्रेम था। वे प्रजावर्ग के हित की इच्छा रखते थे। उनका मन भोगों से विरक्त एवं शांत था। वे उत्तम तपस्या में लगे हुए थे। राजा हर्यश्व के पास जाकर विप्रवर गालव ने कहा- 'राजेन्द्र! मेरी यह कन्या अपनी संतानों द्वारा वंश की वृद्धि करने वाली है। तुम शुल्क देकर इसे अपनी पत्नी बनाने के लिए ग्रहण करो। हर्यश्व! मैं तुम्हें पहले इसका शुल्क बताऊंगा। उसे सुनकर तुम अपने कर्तव्य का निश्चय करो।'[3]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 115 श्लोक 1-16
  2. नातियों से युक्त
  3. महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 115 श्लोक 17-21

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सैन्यनिर्याणपर्व
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उलूकदूतागमनपर्व
दुर्योधन का उलूक को दूत बनाकर पांडवों के पास भेजना | पांडव शिविर में उलूक द्वारा दुर्योधन का संदेश सुनाना | पांडवों की ओर से दुर्योधन को उसके संदेश का उत्तर | पंडवों का संदेश लेकर उलूक का लौटना | धृष्टद्युम्न द्वारा योद्धाओं की नियुक्ति

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