श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
नवम अध्याय
भोग लगाने पर जिन वस्तुओं का भगवान स्वीकार कर लेते हैं, उन वस्तुओं में विलक्षणता आ जाती है अर्थात उन वस्तुओं में स्वाद बढ़ जाता है, उनमें सुगंध आने लगती है; उनको खाने पर विलक्षण तृप्ति होती है, वे चीजें कितने ही दिनों तक पड़ी रहने पर भी खराब नहीं होती; आदि-आदि। परंतु यह कसौटी नहीं है कि ऐसा होता ही है। कभी भक्त का ऐसा भाव बन जाए तो भोग लगायी हुई वस्तुओं में ऐसी विलक्षणता आ जाती है- ऐसा हमने संतों से सुना है। मनुष्य जब पदार्थों की आहुति देते हैं तो वह यज्ञ हो जाता है; चीजों को दूसरों को दे देते हैं तो वह दान कहलाता है, संयमपूर्वक अपने काम में न लेने से वह तप हो जाता है और भगवान के अर्पण करने से भगवान के साथ योग (संबंध) हो जाता है- ये सभी एक ‘त्याग’ के ही अलग-अलग नाम हैं। संबंध- संसारमात्र के दो रूप हैं- पदार्थ और क्रिया। इनमें आसक्ति होने से ये दोनों ही पतन करने वाले होते हैं। अतः ‘पदार्थ’ अर्पण करने की बाद पूर्वश्लोक में कह दी और अब आगे के श्लोक में ‘क्रिया’ अर्पण करने की बात कहते हैं। |
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