श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
नवम अध्याय
‘प्रयतात्मनः’ का तात्पर्य है कि जिसका अंतःकरण भगवान में तल्लीन हो गया है, जो केवल भगवान के ही परायण है, ऐसे प्रेमी भक्त के दिए हुए उपहार- (भेंट-) को भगवान स्वयं खा लेते हैं। यहाँ पत्र, पुष्प, फल और जल- इन चारों का नाम लेने का तात्पर्य यह है कि पत्र, पुष्प और फल- ये तीनों जल से पैदा होने के कारण जल के कार्य हैं और जल इनका कारण है। इससे ये पत्र, पुष्प आदि कार्य-कारण रूप मात्र पदार्थों के उपलक्षण हैं; क्योंकि मात्र सृष्टि जल का कार्य है। और जल उसका कारण है। अतः मात्र पदार्थों को भगवान के अर्पण करना चाहिए। इस श्लोक में ‘भक्त्या’ और ‘भक्त्युपहृतम्’- इस रूप में ‘भक्ति’ शब्द दो बार आया है। इनमें ‘भक्त्या’ पद से भक्त का भक्तिपूर्वक देने का भाव है और ‘भक्त्युपहृतम्’ पद भक्तिपूर्वक दी गयी वस्तु का विशेषण है। तात्पर्य यह हुआ कि भक्तिपूर्वक देने से वह वस्तु भक्तिरूप, प्रेमरूप हो जाती है तो भगवान उसको आत्मसात कर लेते हैं; अपने में मिला लेते हैं; क्योंकि वे प्रेम के भूखे हैं। इस श्लोक में पदार्थों की मुख्यता नहीं है, प्रत्युत भक्त के भाव की मुख्यता है; क्योंकि भगवान भाव के भूखे हैं; पदार्थों के नहीं। अतः अर्पण करने वाले का भाव मुख्य (भक्तिपूर्ण) होना चाहिए। जैसे, कोई अत्यधिक गुरुभक्त शिष्य हो, तो गुरु को सेवा में उसका जितना समय, वस्तु क्रिया लगती है, उतना ही उसको आनंद आता है, प्रसन्नता होती है। इसी तरह पति की सेवा में समय, वस्तु, क्रिया लगने पर पतिव्रता स्त्री को बड़ा आनंद आता है; क्योंकि पति की सेवा में ही उसको अपने जीवन की और वस्तु की सफलता दिखती है। ऐसे ही भक्त का भगवान के प्रति प्रेम-भाव होता है, तो वस्तु चाहे छोटी हो या बड़ी हो, साधारण हो या कीमती हो, उसको भगवान के अर्पण करने में भक्त को बड़ा आनंद आता है। उसका भाव यह रहता है कि वस्तुमात्र भगवान की ही है। मेरे को भगवान ने सेवा-पूजा का अवसर दे दिया है- यह मेरे पर भगवान की विशेष कृपा हो गयी है! इस कृपा को देख-देखकर वह प्रसन्नता होता रहता है। |
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज