श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
नवम अध्याय
मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः । अर्थ- जिनकी सब आशाएँ व्यर्थ होती हैं, सब शुभ-कर्म व्यर्थ होते हैं और सब ज्ञान व्यर्थ होते हैं अर्थात जिनकी आशाएँ, कर्म और ज्ञान सत्-फल देने वाले नहीं होते, ऐसे अविवेकी मनुष्य आसुरी, राक्षसी और मोहिनी प्रकृति का आश्रय लेते हैं। व्याख्या- ‘मोघाशाः’- जो लोग भगवान से विमुक होते हैं, वे सांसारिक भोग चाहते हैं, स्वर्ग चाहते हैं तो उनकी ये सब कामनाएँ व्यर्थ ही होती हैं। कारण कि नाशवान और परिवर्तनशील वस्तु की कामना पूरी होगी ही- यह कोई नियम नहीं है। अगर कभी पूरी हो भी जाए, तो वह टिकेगी नहीं अर्थात फल देकर नष्ट हो जाएगी। जब तक परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती, तब तक कितनी ही सांसारिक वस्तुओं की इच्छाएँ की जाएँ और उनका फल भी मिल जाए तो भी वह व्यर्थ ही है।[1] ‘मोघकर्माणः’- भगवान से विमुख हुए मनुष्य शास्त्रविहित कितने ही शुभकर्म करें, पर अंत में वे सभी व्यर्थ हो जाएंगे। कारण कि मनुष्य अगर सकाम भाव से शास्त्रविहित यज्ञ, दान आदि कर्म भी करेंगे, तो भी उन कर्मों का आदि और अंत होगा और उनके फल का भी आदि और अंत होगा। वे उन कर्मों के फलस्वरूप ऊँचे-ऊँचे लोकों में भी चले जाएंगे, तो भी वहाँ से उनको फिर जन्म-मरण में आना ही पड़ेगा। इसलिए उन्होंने कर्म करके केवल अपना समय बरबाद किया, अपनी बुद्धि बरबाद की और मिला कुछ नहीं। अंत में रीते-के-रीते रह गए अर्थात जिसके लिए मनुष्य शरीर मिला था, उस लाभ से सदा ही रीते रह गए। इसलिए उनके सब कर्म व्यर्थ, निष्फल ही हैं। तात्पर्य यह हुआ कि ये मनुष्य स्वरूप से साक्षात परमात्मा के अंश हैं, सदा रहने वाले हैं और कर्म तथा उनका फल आदि-अंत वाला है; अतः जब तक परमात्मा की प्राप्ति नहीं होगी, तब तक वे सकाम भावपूर्वक कितने ही कर्म करें और उनका फल भोगें, पर अंत में दुःख और अशांति के सिवाय कुछ नहीं मिलेगा। जो शास्त्रविहित कर्म अनुकूल परिस्थिति प्राप्त करने की इच्छा से सकामभावपूर्वक किए जाते हैं, वे ही कर्म व्यर्थ होते हैं अर्थात सत्-फल देने वाले नहीं होते। परंतु जो कर्म भगवान के लिए, भगवान की प्रसन्नता के लिए किए जाते हैं और जो कर्म भगवान के अर्पण किए जाते हैं, वे कर्म निष्फल नहीं होते अर्थात नाशवान फल देने वाले नहीं होते, प्रत्युत सत्-फल देने वाले हो जाते हैं- ‘कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते’।[2] सत्रहवें अध्याय के अट्ठाईसवें श्लोक में भी भगवान ने कहा है कि जिनकी मेरे में श्रद्धा नहीं है अर्थात जो मेरे से विमुख हैं, उनके द्वारा किए गए यज्ञ, दान, तप आदि सभी कर्म सत् होते हैं अर्थात मेरी प्राप्ति कराने वाले नहीं होते। उन कर्मों का इस जन्म में और मरने के बाद भी (परलोक में) स्थायी फल नहीं मिलता अर्थात जो कुछ फल मिलता है, विनाशी ही मिलता है। इसलिए उनके वे सब कर्म व्यर्थ ही हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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