श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षष्ठ अध्याय
युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः । व्याख्या- ‘युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगत कल्मषः’- अपनी स्थिति के लिए जो[1] अभ्यास किया जाता है, वह अभ्यास यहाँ नहीं है। यहाँ तो अनभ्यास-ही-अनभ्यास है अर्थात अपने स्वरूप में अपने आपको दृढ़ रखना ही अभ्यास है। इस अभ्यास में अभ्यासवृत्ति नहीं है। ऐसे अभ्यास से वह योगी अहंता ममतारहित हो जाता है। अहंता और ममता से रहित होना ही पापों से रहित होना है; क्योंकि संसार के साथ अहंता ममतापूर्वक संबंध रखना ही पाप है। पंद्रहवें श्लोक में ‘युञ्जन्नेवम्’ पद सगुण के ध्यान के लिए आया है और यहाँ ‘यञ्जन्नेवम्’ पद निर्गुण के ध्यान के लिए आया है। ऐसे ही पंद्रहवें श्लोक में ‘नियतमानसः’ आया है और यहाँ विगतकल्मषः आया है; क्योंकि वहाँ परमात्मा में मन लगाने की मुख्यता है और यहाँ जड़ता का त्याग करने की मुख्यता है। वहाँ तो परमात्मा का चिंतन करते-करते मन सगुण परमात्मा में तल्लीन हो गया तो संसार स्वतः ही छूट गया और यहाँ अहंता ममतारूप कल्मष से अर्थात संसार से सर्वथा संबंध विच्छेद करके अपने ध्येय परमात्मा में स्थित हो गया। इस प्रकार दोनों का तात्पर्य एक ही हुआ अर्थात वहाँ परमात्मा में लगने से संसार छूट गया और यहाँ संसार को छोड़कर परमात्मा में स्थित हो गया। ‘सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते’- उसकी ब्रह्म के साथ जो अभिन्नता होती है, उसमें ‘मैं’- पन का संस्कार भी नहीं रहता, सत्ता भी नहीं रहती। यही सुखपूर्वक ब्रह्म का संस्पर्श करना है। जिस सुख में अनुभव करने वाला और अनुभव में आने वाला- ये दोनों ही नहीं रहते, वह ‘अत्यंत सुख’ है। इस सुख को योगी प्राप्त कर लेता है। यह ‘अत्यंत सुख’, ‘अक्षय सुख’[2] और ‘आत्यन्तिक सुख’[3]- ये एक ही परमात्मतत्त्व रूप आनंद के वाचक हैं। संबंध- अठारहवें से तेईसवें श्लोक तक स्वरूप का ध्यान करने वाले जिस सांख्ययोगी का वर्णन हुआ है, उसके अनुभव का वर्णन आगे के श्लोक में करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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