श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षष्ठ अध्याय
‘सर्वसंकल्पसंन्यासी’- हमारे मन में जितनी स्फुरणाएँ होती हैं, उन स्फुरणाओं में से जिस स्फुरणा में सुख होता है और उसको लेकर यह विचार होता है कि ‘हमें ऐसा मिल जाए; हम इतने सुखी हो जाएंगे, तो इस तरह स्फुरणा में लिप्तता होने से उस स्फुरणा का नाम ‘संकल्प’ हो जाता है। वह संकल्प ही अनुकूलता-प्रतिकूलता के कारण सुखदायी और दुःखदायी होता है। जैसे सुखदायी संकल्प लिप्तता (रागद्वेष) करता है, ऐसे ही दुःखदायी संकल्प भी लिप्तता करता है। अतः दोनों ही संकल्प बंधन में डालने वाले हैं। उनसे हानि के सिवाय कुछ लाभ नहीं है; क्योंकि संकल्प न तो अपने स्वरूप का बोध होने देता है, न दूसरों की सेवा करने देता है, न भगवान में प्रेम होने देता है, न भगवान में मन लगने देता है, न अपने नजदीक के कुटुम्बियों के अनुकूल ही बनने देता है। तात्पर्य है कि अपना संकल्प रखने से न अपना हित होता है, न संसार का हित होता है, न कुटुम्बियों की कोई सेवा होती है, न भगवान की प्राप्ति होती है और न अपने स्वरूप का बोध ही होता है। इससे केवल हानि-ही-हानि होती है। ऐसा समझकर साधक को संपूर्ण संकल्पों से रहित हो जाना चाहिए, जो कि वास्तव में है ही। मन में होने वाली स्फुरण यदि संकल्प का रूप धारण न करे, तो वह स्फुरणा स्वतः नष्ट हो जाती है। स्फुरणा होने से मनुष्य की उतनी हानि नहीं होती और पतन भी नहीं होता; परंतु समय तो नष्ट होता ही है; अतः वह स्फुरणा भी त्याज्य है। पर संकल्पों का त्याग तो साधक को जरूर ही करना चाहिए। कारण कि संकल्पों का त्याग किए बिना अर्थात अपने मन की छोड़े बिना साधक योगारूढ़ नहीं होता है और योगारूढ़ हुए बिना परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती, कृतकृत्यता नहीं होती, मनुष्य जन्म सार्थक नहीं होता, भगवान में प्रेम नहीं होता, दुःखों का सर्वथा अंत नहीं होता। दूसरे श्लोक में तो भगवान ने व्यतिरेक रीति से कहा है कि संकल्पों का त्याग किए बिना मनुष्य कोई-सा भी योगी नहीं होता और यहाँ अन्वय रीति से कहते हैं कि संकल्पों का त्याग करने से मनुष्य योगारूढ़ हो जाता है। इसका तात्पर्य यह निकला कि साधक किसी प्रकार का संकल्प नहीं रखना चाहिए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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