श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
प्रथम अध्याय संबंध- अब यहाँ यह शंका होती है कि जैसे तुम्हारे लिए दुर्योधन आदि स्वजन हैं, ऐसे ही दुर्योधन आदि के लिए भी तो तुम स्वजन हो। स्वजन की दृष्टि से तुम युद्ध से निवृत्त होने की बात सोच रहे हो, पर दुर्योधन आदि युद्ध से निवृत्त होने की बात ही नहीं सोच रहे हैं- इसका क्या कारण है? इसका उत्तर अर्जुन आगे के दो श्लोकों में देते हैं।
अर्थ- यद्यपि लोभ के कारण जिनका विवेक-विचार लुप्त हो गया है, ऐसे ये दुर्योधन आदि कुल का नाश करने से होने वाले दोष को और मित्रों के साथ द्वेष करने से होने वाले पाप को नहीं देखते, तो भी हे जनार्दन ! कुल का नाश करने से होने वाले दोष को ठीक-ठीक जानने वाले हम लोग इस पाप से निवृत होने का विचार क्यों न करें? व्याख्या- ‘यद्यप्येते न पश्यन्ति......मित्रद्रोहे च पातकम्’- इतना मिल गया, इतना और मिल जाए; फिर ऐसा मिलता ही रहे- ऐसे धन, जमीन, मकान, आदर, प्रशंसा, पद, अधिकार आदि की तरफ बढ़ती हुई वृत्ति का नाम ‘लोभ’ है। इस लोभ-वृत्ति के कारण इन दुर्योधनादि की विवेक-शक्ति लुप्त हो गयी है, जिससे वे यह विचार नहीं कर पा रहे हैं कि जिस राज्य के लिए हम इतना बड़ा पाप करने जा रहे हैं, कुटुम्बियों का नाश करने जा रहे हैं, वह राज्य हमारे साथ कितने दिन रहेगा और हम उसके साथ कितने दिन रहेंगे? हमारे रहते हुए, यह राज्य चला जाएगा तो हमारी क्या दशा होगी और राज्य के रहते हुए हमारे शरीर चले जाएंगे तो क्या दशा होगी? क्योंकि मनुष्य संयोग का जितना सुख लेता है, उसके वियोग का उतना दुःख उसे भोगना ही पड़ता ही पड़ता है। संयोग में इतना सुख नहीं होता, जितना वियोग में दुःख होता है। तात्पर्य है कि अंतःकरण में लोभ छा जाने के कारण इनको राज्य ही राज्य दीख रहा है। कुल का नाश करने से कितना भयंकर पाप होगा, वह इनको दीख ही नहीं रहा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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