श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
प्रथम अध्याय संबंध- पूर्वश्लोक में अर्जुन ने स्वजनों क न मारने में दो हेतु बताए। अब परिणाम की दृष्टि से भी स्वजनों को न मारना सिद्ध करते हैं।
अर्थ- हे जनार्दन! इन धृतराष्ट्र संबंधियों को मारकर हम लोगों को क्या प्रसन्नता होगी? इन आततायियों को मारने से तो हमें पाप ही लगेगा। व्याख्या- ‘निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः... हत्वैता नाततायिनः’- धृतराष्ट्र के पुत्र और उनके सहयोगी दूसरे जितने भी सैनिक हैं, उनको मारकर विजय प्राप्त करने से हमें क्या प्रसन्नता होगी? अगर हम क्रोध अथवा लोभ के वेग में आकर इनको मार भी दें, तो उनका वेग शांत होने पर हमें रोना ही पड़ेगा अर्थात क्रोध और लोभ में आकर हम क्या अनर्थ कर बैठे- ऐसा पश्चात्ताप ही करना पड़ेगा। कुटुम्बियों की याद आने पर उनका अभाव बार-बार खटकेगा। चित्त में उनकी मृत्यु का शोक सताता रहेगा। ऐसी स्थिति में हमें कभी प्रसन्नता हो सकती है क्या? तात्पर्य है कि इनको मारने से हम इस लोक में जब तक जीते रहेंगे, तब तक हमारे चित्त में कभी प्रसन्नता नहीं होगी और इनको मारने से हमें जो पाप लगेगा, वह परलोक में हमें भयंकर दुःख देने वाला होगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ राज्य
- ↑ अग्रिदो गरदश्चैव शस्रपाणिर्धनापह:। क्षेत्रदारापहर्ता.....च षडेते ह्याततायिन :॥ ( वसिषष्ढस्मृति 3। 19) ‘आग लगाने वाला, विष देने वाला, हाथ में शस्र लेकर मारने को उद्यत हुआ, धन का हरण करने वाला, जमीन छीनने वाला और स्री का हरण करने वाला – ये छहों ही आततायी हैं।’
- ↑ पाप
- ↑ मनुस्मृति 8।351
- ↑ आततायी को मार दे- यह अर्थशास्त्र है और किसी की भी हिंसा न करें- यह धर्मशास्त्र है। जिसमें अपना कोई स्वार्थ (मतलब) रहता है, वह ‘अर्थशास्त्र’ कहलाता है; और जिसमें अपना कोई स्वार्थ नहीं रहता, वह ‘धर्मशास्त्र’ कहलाता है। अर्थशास्त्र की अपेक्षा धर्मशास्त्र बलवान होता है। अतः शास्त्रों में जहाँ अर्थशास्त्र और धर्मशास्त्र- दोनों में विरोध आये, वहाँ अर्थशास्त्र त्याग करके धर्मशास्त्र को ही ग्रहण करना चाहिए- स्मृत्योर्विरोधे न्यायस्तु बलवान्व्यवहारतः। अर्थशास्त्रात्तु बलवद्धर्मशास्त्रमिति स्थितिः।।
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज