श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
प्रथम अध्याय संबंध- पांडव सेना के शंखवादन का कौरव सेना पर क्या असर हुआ- इसको आगे के श्लोक में कहते हैं। स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत् । व्याख्या- ‘स घोषो धार्तराष्ट्राणां.... तुमुलो व्यनुनादयन्’- पांडव-सेना की वह शंख ध्वनि इतनी विशाल, गहरी, ऊँची और भयंकर हुई कि उस[1] से पृथ्वी और आकाश के बीच का भाग गूँज उठा। उस शब्द से अन्यायपूर्वक राज्य को हड़पने वालों के और उनकी सहायता के लिए[2] खड़े हुए राजाओं के हृदय विदीर्ण हो गये। तात्पर्य है कि हृदय को किसी अस्त्र-शस्त्र से विदीर्ण करने से जैसी पीड़ा होती है, वैसी ही पीड़ा उनके हृदय में शंख ध्वनि से हो गयी। उस शंख ध्वनि ने कौरव सेना के हृदय में युद्ध का जो उत्साह था, बल था, उसको कमज़ोर बना दिया, जिससे उनके हृदय में पांडव-सेना का भय उत्पन्न हो गया। संजय ये बातें धृतराष्ट्र को सुना रहे हैं। धृतराष्ट्र के सामने ही संजय का ‘धृतराष्ट्र के पुत्रों अथवा संबंधियों के हृदय विदीर्ण कर दिये’ ऐसा कहना सभ्यतापूर्ण और युक्तिसंगत नहीं मालूम देता। इसलिए संजय को ‘धार्तराष्ट्राणाम्’ न कहकर ‘तावकीनानाम्’[3] कहना चाहिए था; क्योंकि ऐसा कहना ही सभ्यता है। इस दृष्टि से यहाँ ‘धार्तराष्ट्राणाम्’ पद का अर्थ ‘जिन्होंने अन्यापूर्वक राज्य को धारण किया’[4]- ऐसा लेना ही युक्तिसंगत तथा सभ्यतापूर्ण मालूम देता है। अन्याय का पक्ष लेने से ही उनके हृदय विदीर्ण हो गए- इन दृष्टि से भी यह अर्थ लेना ही युक्ति संगत मालूम देता है।
यहाँ शंका होती है कि कौरवों की ग्यारह अक्षौहिणी[5]- सेना के शंख आदि बाजे बजे तो उनके शब्द का पांडव सेना पर कुछ भी असर नहीं हुआ, पर पांडवों की सात अक्षौहिणी सेना के शंख बजे तो उनके शब्द से कौरव सेना के हृदय विदीर्ण क्यों हो गए? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ध्वनि-प्रतिध्वनि
- ↑ उनके पक्ष में
- ↑ आपके पुत्रों अथवा संबंधियों के ऐसा
- ↑ 'अन्याये धृतं राष्ट्र यैस्ते धृतराष्ट्रा' ऐसा बहुब्रीही समास करने के बाद 'धृतराष्ट्र एव' इस विग्रह में स्वार्थ में तद्धिका 'अण्' प्रत्यय किया गया, जिससे 'धृतराष्ट्र:' यह रूप बन गया। यहाँ षष्ठी विभक्ति के प्रयोग आवश्यकता होने से षष्ठी में 'धार्तराष्ट्रणाम्' ऐसा प्रयोग किया गया है।
- ↑ दुर्योधन के पक्ष में ग्यारह अक्षौहिणी सेना का होना संभव नहीं था, परंतु जब पांडव वनवास में चले गये, तब दुर्योधन ने युधिष्ठिर की राज्य करने की नीति को अपनाया। जैसे युधिष्ठिर जी अपना कर्तव्य समझकर प्रजा को सुख देने के लिए धर्म और न्यायपूर्वक राज्य का न्याय करते थे, ऐसे ही दुर्योधन भी अपना राज्य स्थापित करने के लिए, अपना प्रभाव जमाने के लिये प्रजा के साथ युधिष्ठिर के समान बर्ताव किया। तेरह वर्ष तक प्रजा के साथ अच्छा व्यवहार करने से युद्ध के समय बहुत सेना जुट गयी, जो कि पहले पांडवों के पक्ष में थी और पांडवों को चाहती थीं। इस प्रकार नौ अछौहिणी सेना तो प्रजा के साथ अच्छे बर्ताव के प्रभाव से दुर्योधन के पक्ष में हो गयी और भगवान श्रीकृष्ण की एक अक्षौहिणी नारायणी सेना की तथा मद्रराज शल्य की एक अक्षौहिणी सेना को दुर्योधन ने चालाकी से अपने पक्ष में कर लिया, कि जो पांडवों के पक्ष में थी। अतः दुर्योधन के पक्ष में ग्यारह अक्षौहिणी सेना और पांडवों के पक्ष में सात अक्षौहिणी सेना थी।
- ↑ सून बीच दसकंधर देखा। आवा निकट जती के बेषा।।
जाकें डर सुर असुर डेराहीं। निसि न नींद दिन अन्न न खाहीं।।
सो दससीस स्वान की नाईं। इत उत चितइ चला भड़िहाईं।।
इम कुपंथ पग देत खगेसा। रह न तेज तन बुद्धि बल लेसा।। (मानस 3।28।4-5)
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