श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
मा यात पान्थाः पथिभीमरथ्यां ‘अरे पथिको! उस गली से मत जाना, वह बड़ी भयावनी है। वहाँ अपने नितम्बविम्ब पर दोनों हाथ रखे जो तमाल के समान नीले रंग का एक नंग धडंग बालक खड़ा है, वह केवल देखने मात्र का अवधूत है। वास्तव में तो वह अपने पास में से होकर निकलने वाले किसी भी पथिक के चित्त रूपी धन को लूटे बिना नहीं रहता।’ वह जो काला-काला नंग-धड़ंग बालक खड़ा है न? उससे तुम लुट जाओगे, रीते रह जाओगे! वह ऐसा चोर है कि सब खत्म कर देगा। उधर जाना ही मत, पहले ही खयाल रखना। अगर चले गए तो फिर सदा के लिए ही चले गए! इसलिए कोई अच्छी तरह से जीना चाहे तो उधर मत जाए। उसका नाम कृष्ण है न? कृष्ण कहते हैं खींचने वाले को। एक बार खींच ले तो फिर छोड़े ही नहीं। उससे पहचान न हो, तब तक तो ठीक है। अगर उससे पहचान हो गयी तो फिर मामला खत्म। फिर किसी काम के नहीं रहेंगे, त्रिलोकी भर में निकम्मे हो जाओगे। ‘नारायण’ बौरी भई डोलै, रही न काहू काम की ।। हाँ, जो किसी काम का नहीं होता, वह सबके लिए सब काम का होता है। परंतु उसको किसी काम से कोई मतलब नहीं होता। शरणागत भक्त को भजन भी नहीं करना पड़ता। उसके द्वारा स्वतः स्वाभाविक भजन होता है। भगवान का नाम उसे स्वाभाविक ही बड़ा मीठा, प्यारा लगता है। अगर कोई पूछे कि तुम श्वास क्यों लेते हो? यह हवा को भीतर बाहर करने का क्या धंधा शुरु कर रखा है? तो यही कहेंगे कि भाई! यह धंधा नहीं है, इसके बिना हम जी ही नहीं सकते। ऐसे ही शरणागत भक्त भजन के बिना रह ही नहीं सकता। जिसको सब कुछ अर्पण कर दिया, उसके विस्मरण में परम व्याकुलता, महान छटपटाहट होने लगती है- ‘तद्विस्मरणे परमव्याकुलतेति’।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ नारदभक्ति सूत्र 19
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