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श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
जैसे, विभीषण भगवान राम के चरणों की शरण हो जाते हैं, तो फिर विभीषण के दोष को भगवान अपना ही दोष मानते हैं। एक समय विभीषणजी समुद्र के इस पार आए। वहाँ विप्रघोष नामक गाँव में उनसे एक अज्ञात ब्रह्महत्या हो गयी। इस पर वहाँ के ब्राह्मणों ने इकट्ठे होकर विभीषण को खूब मारा-पीटा, पर वे मरे नहीं। फिर ब्राह्मणों ने उन्हें जंजीरों से बाँधकर जमीन के भीतर एक गुफा में ले जाकर बंद कर दिया। राम जी को विभीषण के कैद होने का पता लगा तो वे पुष्पकविमान के द्वारा तत्काल विप्रघोष नामक गाँव में पहुँच गए और वहाँ विभीषण का पता लगाकर उनके पास गए। ब्राह्मणों ने राम जी का बहुत आदर-सत्कार किया और कहा कि ‘महाराज! इसने ब्रह्महत्या कर दी है। इसको हमने बहुत मारा, पर यह मरा नहीं।’ भगवान राम ने कहा कि ‘हे ब्रह्मणों! विभीषण को मैंने कल्प तक की आयु और राज्य दे रखा है, वह कैसे मारा जा सकता है! और उसको मारने की जरूरत ही क्या है? वह तो मेरा भक्त है। भक्त के लिए मैं स्वयं मरने को तैयार हूँ। दास के अपराध की जिम्मेवारी वास्तव में उसके मालिक पर होती है अर्थात मालिक ही उसके दंड का पात्र होता है। अतः विभीषण के बदले में आपलोग मेरे को ही दण्ड दें।’[2] भगवान की यह शरणागतवत्सलता देखकर सब ब्राह्मण आश्चर्य करने लगे और उन सबने भगवान की शरण ले ली।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ काहू के बल भजन कौ, काहू के आचार। ‘व्यास’ भरोसे कुँवरि के, सोवत पाँव पसार ।।
- ↑ वरं ममैव मरणं मद्भक्तो हन्यते कथम्। राज्यमार्युर्मया दत्तं तथैव स भविष्यति ।।
भृत्यापराधे सर्वत्र स्वामिनो दंड इष्यते। रामवाक्यं द्विजाः श्रुत्वा विस्मयादिदमब्रुवन् ।। (पद्यपुराण, पाताल. 104।150-151)
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