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श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
‘मामेकं शरणं व्रज’ का तात्पर्य मन-बुद्धि के द्वारा शरणागति को स्वीकार करना नहीं है, प्रत्युत स्वयं को भगवान की शरण में जाना है। कारण कि स्वयं के शरण होने पर मन, इंद्रियाँ, शरीर आदि भी उसी में आ जाते हैं, अलग नहीं रहते। ‘अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः’- यहाँ कोई ऐसा मान सकता है कि पहले अध्याय में अर्जुन ने जो युद्ध से पाप होने की बातें कही थीं, उन पापों से छुटकारा दिलाने का प्रलोभन भगवान ने दिया है। परंतु यह मान्यता युक्तिसंगत नहीं है; क्योंकि जब अर्जुन सर्वथा भगवान के शरण हो गए हैं, तब उनके पाप कैसे रह सकते हैं[10] और उनके लिए प्रलोभन देना बनता ही नहीं। हाँ, पापों से मुक्त करने का प्रलोभन देना हो तो वह शरणागत होने के पहले ही दिया जा सकता है, शरणागत होने के बाद नहीं। ‘मैं तुझे संपूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा’- इसका भाव यह है कि जब तू संपूर्ण धर्मों का आश्रय छोड़कर मेरी शरण में आ गया और शरण होने के बाद भी तुम्हारे भावों, वृत्तियों, आचरणों आदि में फर्क नहीं पड़ा अर्थात उनमें सुधार नहीं हुआ; भगवत्प्रेम, भगवद्दर्शन आदि नहीं हुए और अपने में अयोग्यता, अनधिकारिता, निर्बलता आदि मालूम होती है, तो भी उनको लेकर तुम चिन्ता या भय मत करो।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ इस श्लोक में ‘एव’ पद ‘अनन्यता’ का ही वाचक है।
- ↑ 7।14
- ↑ इस श्लोक में ‘अनन्यचेताः’ पद अनन्य आश्रय का वाचक है।
- ↑ 8।14
- ↑ 8।22
- ↑ 9।22
- ↑ 11।54
- ↑ 12।6-7
- ↑ 14।26
- ↑ सनमुख होई जीव मोहि जबहिं। जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं ।। (मानस 5।44।1)
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