श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु । अर्थ- तू मेरा भक्त हो जा, मेरे में मनवाला हो जा, मेरा पूजन करने वाला हो जा और मेरे को नमस्कार कर। ऐसा करने से तू मेरे को ही प्राप्त जायगा- यह मैं तेरे सामने सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ; क्योंकि तू मेरा अत्यंत प्रिय है। व्याख्या- ‘मद्भक्तः’- साधक को सबसे पहले ‘मैं भगवान का हूँ’ इस प्रकार अपनी अहंता- (मैं-पन) को बदल देना चाहिए। कारण कि बिना अहंता के बदले साधन सुगमता से नहीं होता। अहंता के बदलने पर साधन सुगमता से, स्वाभाविक ही होने लगता है। अतः साधक को सबसे पहले ‘मद्भक्तः’ होना चाहिए। किसी का शिष्य बनने पर व्यक्ति अपनी अहंता को बदल देता है कि ‘मैं तो गुरु महाराज का ही हूँ।’ विवाह हो जाने पर कन्या अपनी अहंता को बदल देती है कि ‘मैं तो ससुराल की ही हूँ’, और पिता के कुल का संबंध बिलकुल छूट जाता है। ऐसे ही साधक को अपनी अहंता बदल देनी चाहिए कि ‘मैं तो भगवान का ही हूँ और भगवान ही मेरे हैं; मैं संसार का नहीं हूँ और संसार मेरा नहीं है’। [अहंता के बदलने पर ममता भी अपने आप बदल जाती है। ‘मन्मना भव’- उपर्युक्त प्रकार से अपने को भगवान का मान लेने पर भगवान में स्वाभाविक ही मन लगने लगता है। कारण कि जो अपना होता है, वह स्वाभाविक ही प्रिय लगता है और जहाँ प्रियता होती है, वहाँ स्वाभाविक ही मन लगता है। अतः भगवान को अपना मानने से भगवान स्वाभाविक ही प्रिय लगते हैं। फिर मन से स्वाभाविक ही भगवान के नाम, गुण, प्रभाव, लीला आदि का चिन्तन होता है। भगवान के नाम का जप और स्वरूप का ध्यान बड़ी तत्परता से और लगनपूर्वक होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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