श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
असक्तबुद्धि: सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृह: ।
नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां सन्न्यासेनाधिगच्छति ॥49॥
अर्थ- सर्वत्र आसक्ति रहित बुद्धि वाला, स्पृहारहित और जीते हुए अन्त:करण वाला पुरुष सांख्ययोग के द्वारा उस परम नैष्कर्म्यसिद्धि को प्राप्त होता है।
व्याख्या- संन्यास (सांख्य) योग का अधिकारी होने से ही सिद्धि होती है। अतः उसका अधिकारी कैसा होना चाहिए- यह बताने के लिए श्लोक के पूर्वार्द्ध में तीन बातें बतायी हैं-
1. ‘आसक्तबुद्धिः सर्वत्र’- जिसकी बुद्धि सब जगह आसक्तिरहित है अर्थात देश, काल, घटना परिस्थिति, वस्तु, व्यक्ति, क्रिया, पदार्थ आदि किसी में भी जिसकी बुद्धि लिप्त नहीं होती।
2. ‘जितात्मा’- जिसने शरीर पर अधिकार कर लिया है अर्थात जो आलस्य, प्रमाद आदि से शरीर के वशीभूत नहीं होता, प्रत्युत इसको अपने वशीभूत रखता है। तात्पर्य है कि वह किसी कार्य को अपने सिद्धांतपूर्वक करना चाहता है तो उस कार्य में शरीर तत्परता से लग जाता है और किसी क्रिया, घटना, आदि से हटना चाहता है तो वह वहाँ से हट जाता है। इस प्रकार जिसने शरीर पर विजय कर ली है, वह ‘जितात्मा’ कहलाता है।
3. '‘विगतस्पृहः’- जीवन-धारणमात्र के लिए जिनकी विशेष जरूरत होती है, उन चीजों की सूक्ष्म इच्छा का नाम ‘स्पृहा’ है; जैसे- साग-पत्ती कुछ मिल जाए, रूखी-सूखी रोटी ही मिल जाए, कुछ न कुछ खाए बिना हम कैसे जी सकते हैं! जल पीए बिना हम कैसे रह सकते हैं! ठंडी के दिनों में कपड़े बिलकुल न हों तो हम कैसे जी सकते हैं! सांख्ययोग का साधक इन जीवन-निर्वाह-संबंधी आवश्यकताओं की भी परवाह नहीं करता।
तात्पर्य यह हुआ कि सांख्ययोग में चलने वाले को जडता का त्याग करना पड़ता है। उस जडता का त्याग करने में उपर्युक्त तीन बातें आयी हैं। आसक्तबुद्धि होने से वह जितात्मा हो जाता है, और जितात्मा होने से वह विगतस्पृह हो जाता है, तब वह सांख्ययोग का अधिकारी हो जाता है।
‘नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति’- ऐसा आसक्तबुद्धि, जितात्मा और विगतस्पृह पुरुष सांख्ययोग के द्वारा परम नैष्कर्म्यसिद्धि को अर्थात नैष्कर्म्यरूप परमात्मतत्त्व को प्राप्त हो जाता है। कारण कि क्रियामात्र प्रकृति में होती है और जब स्वयं का उस क्रिया के साथ लेशमात्र भी संबंध नहीं रहता, तब कोई भी क्रिया और उसका फल उस पर किञ्चिन्मात्र भी लागू नहीं होता। अतः उसमें जो स्वाभाविक, स्वतः सिद्ध निष्कर्मता- निर्लिप्तता है, वह प्रकट हो जाती है।
संबंध- अब उस परम सिद्धि को प्राप्त करने की विधि बताने की प्रतिज्ञा करते हैं।
|