श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
ब्राह्मण के लिए भिक्षा बतायी गयी है। देखने में भिक्षा निर्दोष दीखती है, पर उसमें भी दोष आ जाते हैं। जैसे किसी गृहस्थ के घर पर कोई भिक्षुक खड़ा है और उसी समय दूसरा भिक्षुक वहाँ आ जाता है तो गृहस्थ को भार लगता है। भिक्षुकों में परस्पर ईर्ष्या होने की संभावना रहती है। भिक्षा देने वाले के घर में पूरी तैयारी नहीं है तो उसको भी दुःख होता है। यदि कोई गृहस्थ भिक्षा देना नहीं चाहता और उसके घर पर भिक्षुक चला जाए तो उसको बड़ा कष्ट होता है। अगर वह भिक्षा देता है तो खर्चा होता है और नहीं देता है तो भिक्षुक निराश होकर चला जाता है। इससे उस गृहस्थ को पाप लगता है और बेचारा उसमें फँस जाता है। इस प्रकार यद्यपि भिक्षा में भी दोष होते हैं, तथापि ब्राह्मण को उसे छोड़ना नहीं चाहिए। क्षत्रिय के लिए न्याययुक्त युद्ध प्राप्त हो जाए तो उसको करने से क्षत्रिय को पाप नहीं लगता। यद्यपि युद्धरूप कर्म में दोष हैं; क्योंकि उसमें मनुष्यों को मारना पड़ता है, तथापि क्षत्रिय के लिए सहज और शास्त्रविहित होने से दोष नहीं लगता। ऐसे ही वैश्य के लिए खेती करना बताया गया है। खेती करने में बहुत से जन्तुओं की हिंसा होती है। परंतु वैश्य के लिए सहज और शास्त्रविहित होने से हिंसा का इतना दोष नहीं लगता। इसलिए सहज कर्मों को छोड़ना नहीं चाहिए। सहज कर्मों को करने में दोष (पाप) नहीं लगता- यह बात ठीक है; परंतु इन साधारण सहज कर्मों से मुक्ति कैसे हो जाएगी? वास्तव में मुक्ति होने में सहज कर्म बाधक नहीं हैं। कामना, आसक्ति, स्वार्थ, अभिमान आदि से ही बंधन होता है और पाप भी इन कामना आदि के कारण से ही होते हैं। इसलिए मनुष्य को निष्काम भावपूर्वक भगवत्प्रीत्यर्थ सहज कर्मों को करना चाहिए, तभी बंधन छूटेगा। ‘सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः’- जितने भी कर्म हैं, वे सब के सब सदोष ही हैं; जैसे- आग सुलगायी जाए तो आरंभ में धुआँ होता ही है। कर्म करने में देश, काल, घटना, परिस्थिति आदि की परतंत्रता और दूसरों की प्रतिकूलता भी दोष है, परंतु स्वभाव के अनुसार शास्त्रों ने आज्ञा दी है। उस आज्ञा के अनुसार निष्काम भावपूर्वक कर्म करता हुआ मनुष्य पाप का भागी नहीं होता। इसी से भगवान अर्जुन से मानो यह कह रहे हैं कि ‘भैया! तू जिस युद्धरूप क्रिया को घोर कर्म मान रहा है, वह तेरा धर्म है; क्योंकि न्याय से प्राप्त हुए युद्ध को करना क्षत्रियों का धर्म है, इसके सिवाय क्षत्रिय के लिए दूसरा कोई श्रेय का साधन नहीं है’।[1]। संबंध- अब भगवान सांख्ययोग का प्रकरण आरंभ करते हुए सांख्ययोग के अधिकारी का वर्णन करते हैं।
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज