श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
सुखं त्विदानीं त्रिविधं श्रृणु मे भरतर्षभ । अर्थ- हे भरत श्रेष्ठ! अब तीन प्रकार के सुख को भी तू मुझसे सुन। जिस सुख में साधक मनुष्य भजन, ध्यान और सेवादि के अभ्यास से रमण करता है और जिससे दुखों के अन्त को प्राप्त हो जाता है। अर्थ- जो ऐसा सुख है, वह आरम्भकाल में यद्यपि विष के तुल्य प्रतीत होता है, परंतु परिणाम में अमृत के तुल्य है; इसलिये वह परमात्मविषयक बुद्धि के प्रसाद से उत्पन्न होने वाला सुख सात्त्विक कहा गया है। व्याख्या- ‘भरतर्षभ’- इस संबोधन को देने में भगवान का भाव यह है कि भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन तुम राजस-तामस सुखों में लुब्ध, मोहित होने वाले नहीं हो; क्योंकि तुम्हारे लिए राजस और तामस सुख पर विजय करना कोई बड़ी बात नहीं है। तुमने राजस सुख पर विजय भी कर ली है; क्योंकि स्वर्ग की उर्वशी- जैसी सुंदरी अप्सरा को भी तुमने ठुकरा दिया है। इसी प्रकार तुमने तामस सुख पर भी विजय कर ली है; क्योंकि प्राणिमात्र के लिए आवश्यक जो निद्रा का तामस सुख है, उसको तुमने जीत लिया है। इसी से तुम्हारा नाम ‘गुडाकेश’ हुआ है। ‘सुखं तु इदानीम्’- ज्ञान, कर्म, कर्ता, बुद्धि और धृति के तीन-तीन भेद बताने के बाद यहाँ ‘तु’ पद का प्रयोग करके भगवान कहते हैं कि सुख भी तीन तरह का होता है। इसमें एक विशेष ध्यान देने की बात है कि आज पारमार्थिक मार्ग पर चलने वाले जितने भी साधक हैं, उन साधकों की ऊँची स्थिति न होने में अथवा उनको परमात्मतत्त्व का अनुभव न होने में अलग कोई विघ्न-बाधा है, तो वह है- सुख की इच्छा। सात्त्विक सुख भी आसक्ति के कारण बंधनकारक हो जाता है। तात्पर्य है कि अगर साधनजन्य- ध्यान और एकाग्रता का सुख भी लिया जाए, तो वह भी बंधनकारक हो जाता है। तना ही नहीं, अगर समाधि का सुख भी लिया जाए, तो वह भी परमात्मतत्त्व की प्राप्ति में बाधक हो जाता है- ‘सुखसंगेन बध्नाति’।[1] इस विषय में कोई कहे कि परमात्मतत्त्व का सुख आ जाए तो क्या उस सुख को भी हम न लें? वास्तव में परमात्मतत्त्व का सुख लिया नहीं जाता, प्रत्युत उस अक्षय सुख का स्वतः अनुभव होता है।[2] साधन-जन्य सुख का भोग न करने से वह अक्षय सुख स्वतः-स्वाभाविक प्राप्त हो जाता है। उस अक्षय सुख की तरफ विशेष खयाल कराने के लिए भगवान यहाँ ‘तु’ पद का प्रयोग करते हैं। यहाँ ‘इदानीम्’ कहने का तात्पर्य है कि अर्जुन संन्यास और त्याग के तत्त्व को जानना चाहते हैं; अतः उनकी जिज्ञासा के उत्तर में भगवान ने त्याग, ज्ञान, कर्म, कर्ता, बुद्धि और धृति के तीन-तीन भेद बताये। परंतु इन सबमें ध्येय तो सुख का ही होता है। अतः भगवान कहते हैं कि तुम उसी ध्येय की सिद्धि के लिए सुख के भेद सुनो।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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