श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
सप्तदश अध्याय
सद्भावे साधुभावे च सदित्येतत्प्रयुज्यते ।
व्याख्या- ‘सद्भावे’- ‘परमात्मा है’ इस प्रकार परमात्मा की सत्ता (होनेपन) का नाम ‘सद्भाव’ है। उस परमात्मा के सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार आदि जितने रूप हैं और सगुण-साकार में भी उसके विष्णु, राम, कृष्ण, शिव, शक्ति, गणेश, सूर्य आदि जितने अवतार हैं, वे सब के सब ‘सद्भाव’ के अंतर्गत हैं। इस प्रकार जिसका किसी देश, काल, वस्तु आदि में कभी अभाव नहीं होता, ऐसे परमात्मा के जो अनेक रूप हैं, अनेक नाम हैं, अनेक तरह की लीलाएँ हैं, वे सब के सब ‘सद्भाव’ के अंतर्गत हैं। ‘साधुभावे’- परमात्मप्राप्ति के लिए अलग-अलग संप्रदायों में अलग-अलग जितने साधन बताए गए हैं, उनमें हृदय के जो दया, क्षमा आदि श्रेष्ठ, उत्तम भाव हैं, वे सब के सब ‘साधुभाव’ के अंतर्गत हैं। ‘सदित्येतत्प्रयुज्यते’- सत्ता में और श्रेष्ठता में ‘सत्’ शब्द का प्रयोग किया जाता है अर्थात जो सदा है, जिसमें कभी किञ्चिन्मात्र भी कमी और अभाव नहीं होता- ऐसे परमात्मा के लिए और उस परमात्मा की प्राप्ति के लिए दैवी संपत्ति के जो सत्य, क्षमा, उदारता, त्याग आदि श्रेष्ठ गुण हैं, उनके लिए ‘सत्’ शब्द का प्रयोग किया जाता है; जैसे- सत्-तत्त्व, सद्गुण, सद्भाव आदि। ‘प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते’- परमात्मप्राप्ति के लिए अलग-अलग संप्रदायों में अलग-अलग जितने साधन बताए गए हैं, उनमें क्रिया-रूप से जितने श्रेष्ठ आचरण हैं, वे सब के सब ‘प्रशस्ते कर्मणि’ के अंतर्गत हैं। इसी प्रकार शास्त्रविधि के अनुसार यज्ञोपवित, विवाह आदि संस्कार; अन्नदान, भूमिदान, गोदान आदि दान; और कुआँ बावड़ी खुदवाना, धर्मशाला बनवाना, मंदिर बनवाना, बगीचा लगवाना आदि श्रेष्ठ कर्म भी ‘प्रशस्ते कर्मणि’ के अंतर्गत आते हैं। इन सब श्रेष्ठ आचरणों में, श्रेष्ठ कर्मों में ‘सत्’ शब्द का प्रयोग किया जाता है; जैसे- सदाचार, सत्कर्म, सत्सेवा, सद्व्यवहार आदि। |
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