श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
सप्तदश अध्याय
तदित्यनभिसंधाय फलं यज्ञतप:क्रिया: ।
व्याख्या- ‘तदित्यनभिसंधाय........... मोक्ष कांक्षिभिः’- केवल उस परमात्मा की प्रसन्नता के उद्देश्य से, किञ्चिन्मात्र भी फल की इच्छा न रखकर शास्त्रीय यज्ञ, तप, दान आदि शुभकर्म किए जाएं। कारण कि विहित-निषिद्ध, शुभ-अशुभ आदि क्रियामात्र का आरंभ होता है और समाप्ति होती है। ऐसे ही उस क्रिया का जो फल होता है, उसका भी संयोग होता है और वियोग होता है अर्थात कर्मफल के भोग का भी आरंभ होता है और समाप्ति होती है। परंतु परमात्मा तो उस क्रिया और फलभोगी के आरंभ होने से पहले भी हैं तथा क्रिया और फलभोग की समाप्ति के बाद भी हैं एवं क्रिया और फलभोग के समय भी वैसे-के वैसे हैं। परमात्मा की सत्ता नित्य-निरंतर है। नित्य-निरंतर रहने वाली इस सत्ता की तरफ ध्यान दिलाने में ही ‘तत् इति’ पदों का तात्पर्य है; और उत्पत्ति-विनाशशील फल की तरफ ध्यान न देने में ही ‘अनभिसंधाय फलम्’ पदों का तात्पर्य है; अर्थात नित्य-निरतंर रहने वाले तत्त्व की स्मृति रहनी चाहिए और नाशवान फल की अभिसंधि (इच्छा) बिलकुल नहीं रहनी चाहिए। नित्य-निरंतर वियुक्त होने वाले, प्रतिक्षण अभाव में जाने वाले इस संसार में जो कुछ देखने, सुनने और जानने में आता है, उसी को हम प्रत्यक्ष, सत्य मान लेते हैं और उसी की प्राप्ति में हम अपनी बुद्धिमानी और बल को सफल मानते हैं। इस परिवर्तनशील संसार को प्रत्यक्ष मानने के कारण ही सदा-सर्वदा सर्वत्र परिपूर्ण रहता हुआ भी वह परमात्मा हमें प्रत्यक्ष नहीं दीखता। इसलिए एक परमात्माप्राप्ति का ही उद्देश्य रखकर उस संसार का अर्थात अहंता-ममता (मैं-मेरेपन) का त्याग करके, उन्हीं की दी हुई शक्ति से, यज्ञ आदि को उन्हीं का मानकर निष्कामभावपूर्वक उन्हीं के लिए यज्ञ आदि शुभकर्म करने चाहिए। इसी में ही मनुष्य की वास्तविक बुद्धिमानी और बल (पुरुषार्थ) की सफलता है। तात्पर्य यह है कि जो संसार प्रत्यक्ष प्रतीत हो रहा है, उसका तो निराकरण करना है और जिसको अप्रत्यक्ष मानते हैं, उस ‘तत्’ नाम से कहे जाने वाले परमात्मा का अनुभव करना है; जो नित्य-निरंतर प्राप्त है। |
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज