श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
सप्तदश अध्याय
इसी अध्याय के तीसरे श्लोक में भगवान ने कहा है- ‘यो यच्छ्रद्धः स एव सः’ अर्थात जो जैसी श्रद्धा वाला है, वैसा ही उसका स्वरूप होता है और वैसा ही (श्रद्धा के अनुसार) उससे कर्म होता है। तात्पर्य यह है कि कर्ता का कर्म के साथ संबंध होता है और कर्म के साथ संबंध होने से ही कर्ता का बंधन होता है। केवल कर्तव्यमात्र समझकर कर्म करने से कर्ता का कर्म के साथ संबंध नहीं रहता अर्थात कर्ता मुक्त हो जाता है। केवल कर्तव्यमात्र समझकर कर्म करना क्या है? अपने लिए कुछ नहीं करना है, सामग्री के साथ मेरा कोई संबंध नहीं है; मेरा देश, काल, आदि से भी कोई संबंध नहीं है; केवल मनुष्य होने के नाते जो कर्तव्य प्राप्त हुआ है, उसको कर देना है- ऐसा भाव होने से कर्ता फलाकांक्षी नहीं होगा और कर्मों का फल कर्ता को बांधेगा नहीं अर्थात यज्ञ की क्रिया और यज्ञ के फल के साथ कर्ता का संबंध नहीं होगा। गीता कहती है- ‘कायेन मनसा बुद्धय्या केवलैरिन्द्रियैरपि ।’[1] अर्थात करण (शरीर, इंद्रियाँ आदि) उपकरण (यज्ञ करने में उपयोगी सामग्री) और अधिकरण (स्थान) आदि किसी के भी साथ हमारा संबंध न हो। यज्ञ की क्रिया का आरंभ होता है और समाप्ति होती है। ऐसे ही उसके फल का भी आरंभ होता है और समाप्ति होती है। क्रिया और फल दोनों उत्पन्न होकर नष्ट होने वाले हैं और स्वयं (आत्मा) नित्य-निरंतर रहने वाला है; परंतु यह (स्वयं) क्रिया और फल के साथ अपना संबंध मान लेता है। इस माने हुए संबंध को यह जब तक नहीं छोड़ता, तब तक यह जन्म-मरण रूप बंधन में पड़ा रहता है- ‘फले सक्तो निबध्यते’[2] एक विलक्षण बात है कि गीता में जो सत्त्वगुण कहा है, वह संसार से संबंध-विच्छेद करके परमात्मा की तरफ ले जाने वाला होने से ‘सत्’ अर्थात निर्गुण हो जाता है।[3] दैवी संपत्ति में भी जितने गुण हैं, वे सब सात्त्विक ही हैं। परंतु दैवी-संपत्ति वाला तभी परमात्मा को प्राप्त होगा, जब वह सत्त्वगुण से ऊँचा उठ जाएगा अर्थात जब गुणों के संग से सर्वथा रहित हो जाएगा।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 5:11
- ↑ गीता 5:12
- ↑ श्रीमद्भागवत में एकादश स्कन्ध के पच्चीसवें अध्याय में जहाँ तामस, राजस और सात्त्विक- इन तीन गुणों का वर्णन हुआ है, वहाँ उनके साथ एक ‘निर्गुण’ और कहा है। परंतु गीता में तीन ही गुण कहे गए हैं। जब दोनों के वक्ता भगवान श्रीकृष्ण ही हैं, तो फिर ऐसा भेद क्यों? गीता का जो सात्त्विक भाव है, उसमें भगवान ने ‘यष्टव्यम्’ (गीता 17:11), ‘दातव्यम्’ (गीता 17:20), ‘कार्यमित्येव’ (गीता 18:9) आदि पद कहे हैं। इन्हें कहने का तात्पर्य यह है कि जिस कर्ता का ‘यज्ञ करना मात्र, दान देना मात्र और कर्तव्य करना मात्र’ उद्देश्य रहता है, उसका कर्म और कर्मफल के साथ और प्रकृति और प्रकृति के कार्य के साथ किश्चिन्मात्र भी संबंध नहीं रहता अर्थात सात्त्विक यज्ञ, दान आदि भी ‘निर्गुण’ हो जाते हैं। सत्रहवें अध्याय के अंत में परमात्मा के तीन नामों ‘ऊँ, तत्, सत्’ के वर्णन में ‘सत्’ शब्द की व्याख्या करते हुए भगवान ने बताया कि उस परमात्मा के निमित्त जितने कर्म किए जाते हैं, वे सभी ‘सत्’ (निर्गुण) हो जाते हैं- ‘कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते’। (गीता 17:27) तात्पर्य यह है कि कर्मयोगी का कर्म और कर्मफल के साथ संबंध-विच्छेद होने से और भक्तियोगी के कर्मों का भगवान के साथ संबंध जुड़ने से उनके सभी कर्म ‘निर्गुण’ हो जाते हैं। इस प्रकार दोनों ही बातें एक ही में जाने में गीता में निर्गुण का अलग वर्णन नहीं आया है। गीता में जहाँ सत्त्वगुण को अनामय बताया है, वहाँ सत्त्वगुण से बंधन होने की बात भी कही है (गीता 14:6) और कहा कि सत्त्वगुण में स्थित पुरुष ऊर्ध्वलोकों में जाते हैं। (गीता 14:18) इसका तात्पर्य यह है कि बंधन सत्त्वगुण से नहीं होता, प्रत्युत उसका संग करने से ही बंधन होता है- ‘सुखसंगेन बध्नाति ज्ञानसंगेन चानघ ।।’ (गीता 14:6) और ‘कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ।।’ (गीता 13:21) ऐसे ही सत्त्वगुण में अपनी स्थिति मानना ‘सत्त्वस्थाः’ (गीता 14:18) भी बंधनकारक है।
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