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श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षोडश अध्याय
- अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृताः ।
- प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ ।।16।।
- अर्थ- कामनाओं के कारण तरह-तरह से भ्रमित चित्त वाले, मोह-जाल में अच्छी तरह से फँसे हुए तथा पदार्थों और भोगों में अत्यंत आसक्त रहने वाले मनुष्य भयंकर नरकों में गिरते हैं।
व्याख्या- ‘अनेकचित्तविभ्रान्ताः’- उन आसुर मनुष्यों का एक निश्चय न होने से उनके मन में अनेक तरह की चाहना होती है, और उस एक-एक चाहना की पूर्ति के लिए अनेक तरह के उपाय होते हैं तथा उन उपायों के विषय में उनका अनेक तरह का चिन्तन होता है। उनका चित्त किसी एक बात पर स्थिर नहीं रहता, अनेक तरह से भटकता ही रहता है।
‘मोहजालसमावृत्ताः’- जड का उद्देश्य होने से वे मोहजाल से ढके रहते हैं। मोहजाल का तात्पर्य है कि तेरहवें पंद्रहवें श्लोक तक काम, क्रोध और अभिमान को लेकर जितने मनोरथ बताये गये हैं, उन सबसे वे अच्छी तरह से आवृत्त रहते हैं; अतः उनसे वे कभी छूटते नहीं। जैसे मछली जाल में फँस जाती है, ऐसे ही वे प्राणी मनोरथ रूप मोहजाल में फँसे रहते हैं। उनके मनोरथों में भी केवल एक तरफ ही वृत्ति नहीं होती, प्रत्युत दूसरी तरफ भी वृत्ति रहती है, जैसे- इतना धन तो मिल जाएगा पर उसमें अमुक-अमुक बाधा लग जाएगी तो? हमारे पास दो नंबर की इतनी पूँजी है, इसका पता राजकीय अधिकारियों को लग जाएगा तो?
हमारे मुनीम, नौकर आदि हमारी शिकायत कर देगें तो? हम अमुक व्यक्तियों को मार देंगे, पर हमारी न चली और दशा विपरीत हो गयी तो? हम अमुक का नुकसान करेंगे, पर उससे हमारा नुकसान हो गया तो?- इस प्रकार मोहजाल में फँसे हुए आसुरी संपदा वालों में काम, क्रोध और अभिमान के साथ-साथ भय भी बना रहता है। इसलिए वे निश्चय नहीं कर पाते। कहीं पर जाते हैं ठीक करने के ले, पर हो जाता है बेठीक! मनोरथ सिद्ध न होने से उनको जो दुःख होता है, उसको तो वे ही जानते हैं!
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