श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षोडश अध्याय
व्याख्या- आसुर स्वभाव वाले व्यक्ति अभिमान के परायण होकर इस प्रकार के मनोरथ करते हैं- ‘आढ्योऽभिजनवानस्मि’- कितना धन हमारे पास है। कितना सोना-चाँदी, मकान, खेत, जमीन हमारे पास है। कितने अच्छे आदमी, ऊँचे पदाधिकारी हमारे पक्ष में हैं। हम धन और जन के बल पर, रिश्वत और सिफारिश के बल पर जो चाहें, वही कर सकते हैं। ‘कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया’- आप इतने घूम-फिरे हो, आपको कई आदमी मिले होंगे; पर आप बताओ, हमारे समान आपने कोई देखा है क्या? ‘यक्ष्मे दास्यामि’- हम ऐसा यज्ञ करेंगे, ऐसा दान करेंगे कि सब पर टाँग फेर देंगे! थोड़ा सा यज्ञ करने से, थोड़ा सा दान देने से, थोड़े से ब्राह्मणों को भोजन कराने आदि से क्या होता है? हम तो ऐसे यज्ञ, दान आदि करेंगे, जैसे आज तक किसी ने न किए हों। क्योंकि मामूली यज्ञ, दान करने से लोगों को क्या पता लगेगा कि इन्होंने यज्ञ किया, दान दिया। बड़े यज्ञ, दान से हमारा नाम अखबारों में निकलेगा। किसी धर्मशाला में मकान बनवायेंगे, तो उसमें हमारा नाम खुदवाया जाएगा, जिससे हमारी यादगारी रहेगी। ‘मोदिष्ये’- हम कितने बड़े आदमी हैं। हमें सब तरह से सब सामग्री सुलभ है। अतः हम आनंद से मौज करेंगे। इस प्रकार अभिमान को लेकर मनोरथ करने वाले आसुर लोग केवल ‘करेंगे, करेंगे’- ऐसा मनोरथ ही करते रहते हैं, वास्तव में करते-कराते कुछ नहीं। वे करेंगे भी, तो वह भी नाम मात्र के लिए करेंगे (जिसका उल्लेख आगे सत्रहवें श्लोक में आया है)। कारण कि ‘इत्यज्ञानविमोहिताः’- इस प्रकार तेरहवें, चौदहवें, और पंद्रहवें श्लोक में वर्णित मनोरथ करने वाले आसुर लोग अज्ञान से मोहित रहते हैं अर्थात मूढ़ता के कारण ही उनकी ऐसे मनोरथ वाली वृत्ति होती है। संबंध- परमात्मा से विमुख हुए आसुरी संपदा वालों को जीते जी अशांति, जलन, संताप आदि तो होते ही हैं, पर मरने पर उनकी क्या गति होती है- इसको आगे के श्लोक में बताते हैं। |
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