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श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षोडश अध्याय
आसुरी-संपत्ति का दूसरा फल है- ‘पतन्ति नरकेऽशुचौ’।[2] जो कामना के वशीभूत होकर पाप, अन्याय, दुराचार आदि करते हैं, उनको फलस्वरूप स्थानविशेष नरकों की प्राप्ति होती है। आसुरी-संपत्ति का तीसरा फल है- ‘आसुरीष्वेव योनिषु’, ‘ततो यान्त्यधमां गतिम्’।[3] जिनके भीतर दुर्गुण-दुर्भाव रहते हैं और कभी-कभी उनसे प्रेरित होकर वे दुराचार भी कर बैठते हैं, उनको दुर्गुण-दुर्भाव के अनुसार पहले तो आसुरी योनि की प्राप्ति और फिर दुराचार के अनुसार अधम गति (नरकों) की प्राप्ति बतायी गयी है। ‘मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव’- केवल अविनाशी परमात्मा को चाहने वाले की दैवी संपत्ति होती है, जिससे मुक्ति होती है और विनाशी संसार के भोग तथा संग्रह को चाहने वाले की आसुरी-संपत्ति होती है, जिससे बंधन होता है- इस बात को सुनकर अर्जुन के मन में कहीं यह शंका पैदा न हो जाए कि मुझे तो अपने में दैवी-संपत्ति दीखती ही नहीं! इसलिए भगवान कहते हैं कि ‘भैया अर्जुन! तुम दैवी संपत्ति को प्राप्त हुए हो; अतः शोक-संदेह मत करो।’ दैवी-संपत्ति को प्राप्त हो जाने पर साधन के द्वारा कर्मयोग, ज्ञानयोग या भक्तियोग का साधन स्वाभाविक ही होता है। कर्तव्य-पालन से कर्मयोगी के प्रति ज्ञानाग्नि से ज्ञानयोगी के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं;[4] परंतु भक्तियोगी के सभी पाप भगवान नष्ट करते हैं[5] और संसार से उद्धार करते हैं।[6] ‘मा शुचः’[7]- तीसरे श्लोक में ‘भारत’, चौथे श्लोक में ‘पार्थ’ और इस पाँचवें श्लोक में ‘पाण्डव’- इन तीन संबोधनों का प्रयोग करके भगवान अर्जुन को उत्साह दिलाते हैं कि ‘भारत! तुम्हारा वंश बड़ा श्रेष्ठ है; पार्थ! तुम उस माता (पृथा) के पुत्र हो, जो वैरभाव रखने वालों की भी सेवा करने वाली है; पाण्डव! तुम बड़े धर्मात्मा और श्रेष्ठ पिता (पाण्डु) के पुत्र हो’। तात्पर्य है कि वंश, माता और पिता- इन तीनों ही दृष्टियों से तुम श्रेष्ठ हो; अतः तुम्हारे में दैवी संपत्ति भी स्वाभाविक है। इसलिए तुम्हें शोक नहीं करना चाहिए। |
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 8:25 में
- ↑ गीता 16:16
- ↑ गीता 16।19-20
- ↑ गीता 4।23, 37
- ↑ गीता 18:66
- ↑ गीता 12:7
- ↑ ‘मा शुचः’ क्रिया दिवादिगण की ‘शुचिर् पूतीभावे’ धातु के लुङ् लकार का रूप है।
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