श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षोडश अध्याय
अत: मनुष्य उस अधिकार के अनुसार यज्ञ, दान, तप, तीर्थ, व्रत, जप, ध्यान, स्वाध्याय, सत्संग आदि जितना साधन-समुदाय है, उसका अनुष्ठान केवल अनंत ब्रह्माण्डों के अनंत जीवों के कल्याण के लिये ही करे और दृढ़ता से यह संकल्प रखते हुए प्रार्थना करे कि हे नाथ! मात्र जीवों का कल्याण हो, मात्र जीव जीवन्मुक्त हो जायँ, मात्र जीव आपके अनन्य प्रेमी भक्त बन जायँ पर हे नाथ! यह होगा केवल आपकी कृपा से ही। मैं तो केवल प्रार्थना कर सकता हूँ और वह भी आपकी हुई सद्बुद्धि के द्वारा ही! ऐसा भाव रखते हुए अपनी कहलाने वाली शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, धन- सम्पत्ति आदि सभी चीजों को मात्र दुनिया के कल्याण के लिये भगवान के अर्पण कर दे।[1] ऐसा करने से अपनी कहलाने वाले चीजों की तो संसार के साथ और अपनी भगवान के साथ स्वत: सिद्ध एकता प्रकट हो जाएगी इसे भगवान ने 'दैवी सम्पद्धिमोक्षय' पदों से कहा है। निबन्धायासुरी मता- जो जन्म-मरण को देने वाली है, वह सब आसुरी सम्पति है। जब तक मनुष्य की अहंता का परिवर्तन नहीं होता तब तक अच्छे-अच्छे गुण धारण करने पर वे निरर्थक तो नहीं जाते पर उनसे उसकी मुक्ति हो जाएगी ऐसी बात नहीं है। तात्पर्य यह है मेरा शरीर बना रहे मेरे को सुख आराम मिलता रहे इस प्रकार के विचार अहंता में बैठे रहेंगे, तब तक ऊपर से भरे हुए दैवी सम्पत्ति के गुण मुक्तिदायक नहीं होंगे हाँ यह बात तो हो सकती है कि वे गुण उसको शुभ फल देने वाले हो जायँगे ऊँचे देने वाले हो जायँगे, पर मुक्ति नहीं देगें जैसे बीजो को मिट्टी में मिला देने पर मिट्टी जल हवा धूप ये सभी उस बीजों को ही पुष्ट करते हैं आकाश भी उसे अवकाश देता है; बीज से उसी जाति का वृक्ष पैदा होता है और उस वृक्ष में उसी जाति के फल लगते है। ऐसे ही अहंता मैं पन में संसार के संस्कार रुपी बीज रखते हुए जिस शुभ कर्म को करेंगे, वह शुभ कर्म उन बीजों को ही पुष्ट करेगा और उन बीजों के अनुसार ही फल देगा तात्पर्य यह है कि सकाम मनुष्य की अहंता के भीतर संसार साधन में अणिमा गरिमा आदि सिद्धियाँ आयेंगी उसमें और कुछ विशेषता भी आयेगी वह ब्रह्मलोक आदि में लोकों में जाकर वहाँ के ऊँचे-ऊँचे भोग प्राप्त कर सकता है, पर उसकी मुक्ति नहीं होगी।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मात्र जीवों के कल्याण का जो भाव है, वह भाव भी भगवान की ही दी हुई विभूति दैवी-सम्पत्ति है, अपना नहीं है अपने तो केवल भगवान ही है।
- ↑ गीता 8:16
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