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श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
पंचदश अध्याय
यद्यपि माता-पिता बालक का पालन पोषण किया करते हैं, तथापि बालक को इस बात का ज्ञान नहीं होता कि मेरा पालन-पोषण कौन करता है, कैसे करता है और किसलिए करता है? इसी तरह यद्यपि भगवान मात्र प्राणियों का पालन-पोषण करते हैं, तथापि अज्ञानी मनुष्य को (भगवान पर दृष्टि न रहने से) इस बात का पता ही नहीं लगता कि मेरा पालन-पोषण कौन करता है। भगवान का शरणागत् भक्त ही इस बात को ठीक तरह से जानता है कि एक भगवान ही सबका सम्यक प्रकार से पालन-पोषण कर रहे हैं। पालन-पोषण करने में भगवान किसी के साथ कोई पक्षपात (विषमता) नहीं करते। वे भक्त-अभक्त, पापी-पुण्यात्मा, आस्तिक-नास्तिक आदि सभी का समान रूप से पालन-पोषण करते हैं।[1] प्रत्यक्ष देखने में आता है कि भगवान द्वारा रचित दृष्टि में सूर्य सबको समानरूप से प्रकाश देता है, पृथ्वी सबको समान रूप से धारण करती है, वैश्वानर-अग्नि सबके अन्न को समान रूप से पचाती है, वायु सबको (श्वास लेने के लिए) समान रूप से प्राप्त होती है, अन्न-जल सबको समानरूप से तृप्त करते हैं, इत्यादि। संबंध- पूर्वश्लोक में वर्णित उत्तम पुरुष के साथ अपनी एकता बताकर अब साकार रूप से प्रकट भगवान श्रीकृष्ण अपना अत्यंत गोपनीय रहस्य प्रकट करते हैं। |
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अयमुत्तमोऽयमधमो जात्या रूपेण संपदा वयसा। श्लाघ्योऽश्लाघ्यो वेत्थं न वेत्ति भगवाननुग्रहावसरे ।।
अंतःस्वभावभोक्ता ततोऽन्तरात्मा महामेघः। खदिर श्चम्पक इव वा प्रवर्षणं किं विचारयति ।। (प्रबोध सुधाकर 252-253)
‘किसी पर कृपा करते समय भगवान ऐसा विचार नहीं करते कि यह जाति, रूप, धन और आयु से उत्तम है या अधम? स्तुत्य है या निन्द्य?’
‘यह अंतरात्मा-रूपी महामेघ आंतरिक भावों का ही भोक्ता है। मेघ क्या वर्षा के समय इस बात का विचार करता है कि यह खदिर (खैर) है अथवा चम्पक (चम्पा)?’
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