श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
पंचदश अध्याय
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः । अर्थ- उत्तम पुरुष तो अन्य ही है, जो परमात्मा नाम से कहा गया है। वही अविनाशी ईश्वर तीनों लोकों में प्रविष्ट होकर सबका भरण-पोषण करता है। व्याख्या- ‘उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः’- पूर्वश्लोक में क्षर और अक्षर दो प्रकार के पुरुषों का वर्णन करने के बाद अब भगवान यह बताते हैं कि उन दोनों से उत्तम पुरुष तो अन्य ही हैं।[1] यहाँ ‘अन्य:’ पद परमात्मा अविनाशी अक्षर (जीवात्मा) से भिन्न बताने के लिए नहीं, प्रत्युत उससे विलक्षण बताने के लिए लिए आया है। इसीलिए भगवान ने आगे अठारहवें श्लोक में अपने को नाशवान क्षर से ‘अतीत’ और अविनाशी अक्षर से ‘उत्तम’ बताया है। परमात्मा का अंश होते हुए भी जीवात्मा की दृष्टि या खिंचाव नाशवान क्षर की ओर हो रहा है। इसीलिए यहाँ भगवान को उससे विलक्षण बताया गया है। ‘परमात्मेत्युदाहृतः’- उस उत्तम पुरुष को ही ‘परमात्मा’ नाम से कहा जाता है। ‘परमात्मा’ शब्द निर्गुण का वाचक माना जाता है, जिसका अर्थ है- परम (श्रेष्ठ) आत्मा अथवा संपूर्ण जीवों की आत्मा। इस श्लोक में ‘परमात्मा’ और ‘ईश्वर’- दोनों शब्द आए हैं, जिसका तात्पर्य है कि निर्गुण और सगुण सब एक पुरुषोत्तम ही है। ‘यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः’- वह उत्तम पुरुष (परमात्मा) तीनों लोकों में अर्थात सर्वत्र समानरूप से नित्य व्याप्त है। यहाँ ‘बिभर्ति’ पद का तात्पर्य यह है कि वास्तव में परमात्मा ही संपूर्ण प्राणियों का भरण-पोषण करते हैं, पर जीवात्मा संसार से अपना संबंध मान लेने के कारण भूल से सांसारिक व्यक्तियों आदि को अपना मानकर उनके भरण-पोषणादि का भार अपने ऊपर ले लेता है। इससे वह व्यर्थ ही दुःख पाता रहता है।[2] भगवान को ‘अव्ययः’ कहने का तात्पर्य है कि संपूर्ण लोकों का भरण-पोषण करते रहने पर भी भगवान का कोई व्यय (खर्चा) नहीं होता अर्थात उनमें किसी तरह की किञ्चिन्मात्र भी कमी नहीं आती। वे सदा ज्यों-के-त्यों रहते हैं। ‘ईश्वरः’ शब्द सगुण का वाचक माना जाता है, जिसका अर्थ है- शासन करने वाला। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (1) द्वे अक्षरे ब्रह्मपरे त्वनन्ते विद्याविद्ये निहिते यत्र गूढे ।
क्षरं त्वविद्या ह्यमृतं तु विद्या विद्याविद्ये ईशते यस्तु सोऽन्यः ।। (श्वेताश्वतरोपनिषद् 5।1)
‘जिस ब्रह्मा से भी ज्येष्ठ, छिपे हुए, असीम और परम अक्षर परमात्मा में विद्या और अविद्या दोनों स्थित हैं, वही ब्रह्म है। विनाशशील जडवर्ग तो अविद्या नाम से कहा गया है और अविनाशी जीवात्मा विद्या नाम से। जो इन विद्या और अविद्या दोनों पर शासन करता है, वह परमेश्वर इन दोनों से भिन्न-सर्वथा विलक्षण है।’
(2) क्षरं प्रधानममृताक्षरं हरः क्षरात्मानावीशते देव एकः। (श्वेताश्वतरोपनिषद् 1।10)
‘प्रकृति तो विनाशशील है और इसे भोगने वाला जीवात्मा अमृतस्वरूप अविनाशी है। इन दोनों (क्षर और अक्षर) को एक ईश्वर अपने शासन में रखता है।’
- ↑ भरण-पोषण की बात भक्तिमार्ग में ही आ सकती है, ज्ञानमार्ग में नहीं। कारण कि भक्तिमार्ग में जीव और परमात्मा में भिन्नता मानी जाती है। इसलिए इस प्रकरण को भक्ति का ही मानना चाहिए।
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