श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
पंचदश अध्याय
अर्जुन भी पूरा उपदेश सुनने के बाद अंत में कहते हैं- ‘स्मृतिर्लब्धा’[1] ‘मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है।’ यद्यपि विस्मृति भी अनादि है, तथापि वह अंत होने वाली है। संसार की स्मृति और परमात्मा की स्मृति में बहुत अंतर है। संसार की स्मृति के बाद विस्मृति का होना संभव है; जैसे- पक्षाघात (लकवा) होने पर पढ़ी हुई विद्या की विस्मृति होना संभव है। इसके विपरीत परमात्मा की स्मृति एक बार हो जाने पर फिर कभी विस्मृति नहीं होती;[2] जैसे-पक्षाघात होने पर अपनी सत्ता (‘मैं हूँ’) की विस्मृति नहीं होती। कारण यह है कि संसार के साथ कभी संबंध होता नहीं और परमात्मा से कभी संबंध छूटता नहीं। शरीर, संसार से मेरा कोई संबंध नहीं है- इस तत्त्व का अनुभव करना ही संसारवृक्ष का छेदन करना है और मैं परमात्मा का अंश हूँ- इस वास्तविकता में हरदम स्थिति रहना ही परमात्मा की खोज करना है। वास्तव में संसार से संबंध-विच्छेद होते ही नित्यप्राप्त परमात्मतत्त्व की अनुभूति हो जाती है। ‘यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः’- जिसे पहले श्लोक में ‘ऊर्ध्वमूलम्’ पद से तथा इस श्लोक में ‘आद्यम् पुरुषम्’ पदों से कहा गया है; और आगे छठे श्लोक में जिसका विस्तार से वर्णन हुआ है, इसी परमात्मतत्त्व का निर्देश यहाँ ‘यस्मिन्’ पद से किया गया है। जैसे जल की बूँद समुद्र में मिल जाने के बाद पुनः समुद्र से अलग नहीं हो सकती, ऐसे ही परमात्मा का अंश (जीवात्मा) परमात्मा को प्राप्त हो जाने के बाद फिर परमात्मा से अलग नहीं हो सकता अर्थात पुनः लौटकर संसार में नहीं आ सकता। ऊँच-नीच योनियों में जन्म लेने का कारण प्रकृति अथवा उसके कार्य गुणों का संग ही है।[3] अतः जब साधक असंगशस्त्र के द्वारा गुणों के संग का सर्वथा छेदन (असत् के संबंध का सर्वथा त्याग) कर देता है, तब उसका पुनः कहीं जन्म लेने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 18:73
- ↑ गीता 2:72, 4।35
- ↑ गीता 13:21
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