श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
पंचदश अध्याय
ततः पदं तत्परिमार्गितव्यं यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः । अर्थ- उसके बाद उस परमपद (परमात्मा) की खोज करनी चाहिए जिसको प्राप्त होने पर मनुष्य फिर लौटकर संसार में नहीं आते और जिससे अनादिकाल से चली आने वाली यह सृष्टि विस्तार को प्राप्त हुई हैं, उस आदिपुरुष परमात्मा के ही मैं शरण हूँ। व्याख्या- ‘ततः पदं तत्परिमार्गितव्यं’- भगवान ने पूर्वश्लोक में ‘छित्वा’ पद से संसार से संबंध-विच्छेद करने की बात कही है। इससे यह सिद्ध होता है कि परमात्मा की खोज करने से पहले संसार से संबंध-विच्छेद करना बहुत आवश्यक है। कारण कि परमात्मा तो संपूर्ण देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदि में ज्यों-के-त्यों विद्यमान हैं, केवल संसार से अपना संबंध मानने के कारण ही नित्यप्राप्त परमात्मा के अनुभव में बाधा लग रही है। संसार से संबंध बना रहने से परमात्मा की खोज करने में ढिलाई आती है और जप, कीर्तन, स्वाध्याय आदि सब कुछ करने पर भी विशेष लाभ नहीं दीखता। इसलिए साधक को पहले संसार से संबंध-विच्छेद करने को ही मुख्यता देनी चाहिए। जीव परमात्मा का ही अंश है। संसार से संबंध मान लेने के कारण ही वह अपने अंशी (परमात्मा) के नित्य-संबंध को भूल गया है। अतः भूल मिटने पर ‘मैं भगवान का ही हूँ’ – इस वास्तविकता की स्मृति प्राप्त हो जाती है। इसी बात पर भगवान कहते हैं कि उस परमपद (परमात्मा) से नित्य-संबंध पहले से ही विद्यमान है। केवल इसकी खोज करनी है। संसार को अपना मानने से नित्यप्राप्त परमात्मा अप्राप्त दीखने लग जाता है और अप्राप्त संसार प्राप्त दीखने लग जाता है। इसलिए परमपद (परमात्मा) को ‘तत्’ पद से लक्ष्य करके भगवान कहते हैं कि जो परमात्मा नित्यप्राप्त है, उसी की पूरी तरह खोज करनी है। खोज उसी की होती है, जिसका अस्तित्व पहले से ही होता है। परमात्मा अनादि और सर्वत्र परिपूर्ण हैं। अतः यहाँ खोज करने का मतलब यह नहीं है कि किसी साधन-विशेष के द्वारा परमात्मा को ढूँढ़ना है। जो संसार (शरीर, परिवार, धनादि) कभी अपना था नहीं, है नहीं, होगा नहीं उसका आश्रय न लेकर, जो परमात्मा सदा से ही अपने हैं, अपने में है और अभी है, उनका आश्रय लेना ही उनकी खोज करना है। साधक को साधन-भजन करना तो बहुत आश्यक है; क्योंकि इसके समान कोई उत्तम काम नहीं है; किंतु ‘परमात्मतत्त्व को साधन-भजन के द्वारा प्राप्त कर लेंगे’- ऐसा मानना ठीक नहीं; क्योंकि ऐसा मानने से अभिमान बढ़ता है, जो परमात्मप्राप्ति में बाधक है। परमात्मा कृपा से मिलते हैं। उनको किसी साधन से खरीदा नहीं जा सकता। साधन से केवल असाधन (संसारह से तादात्म्य, ममता और कामना का संबंध अथवा परमात्मा से विमुकता) का नाश होता है, जो अपने द्वारा ही किया हुआ है। अतः साधन का महत्त्व असाधन को मिटाने में ही समझना चाहिए। असाधन को मिटाने की सच्ची लगन हो, तो असाधन को मिटाने का बल भी परमात्मा की कृपा से मिलता है। |
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