श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
पंचदश अध्याय
न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा । अर्थ- इस संसार वृक्ष का जैसा रूप देखने में आता है, वैसा यहाँ (विचार करने पर) मिलता नहीं; क्योंकि इसका न तो आदि है, न अंत है और न स्थिति ही है। इसलिए इस दृढ़ मूलों वाले संसार रूप अश्वत्थवृक्ष को दृढ़ असंगतारूप शस्त्र के द्वारा काटकर- व्याख्या- ‘न रूपमस्येह तथोपलभ्यते’- इसी अध्याय के पहले श्लोक में संसारवृक्ष के विषय में कहा गया है कि लोग इसको अव्यय (अविनाशी) कहते हैं; और शास्त्रों में भी वर्णन आता है कि सकाम-अनुष्ठान करने से लोक-परलोक में विशाल भोग प्राप्त होते हैं। ऐसी बातें सुनकर मनुष्य लोक तथा स्वर्गलोक में सुख, रमणीयता और स्थायीपन मालूम देता है। इसी कारण अज्ञानी मनुष्य काम और भोग के परायण होते हैं और ‘इससे बढ़कर कोई सुख नहीं है’- ऐसा उनका निश्चय हो जाता है।[1] जब तक संसार से तादात्म्य, ममता और कामना का संबंध है, तब तक ऐसा ही प्रतीत होता है। परंतु भगवान कहते हैं कि विवेकवती बुद्धि से संसार से अलग होकर अर्थात संसार से संबंध-विच्छेद करके देखने से उसका जैसा रूप हमने अभी मान रखा है, वैसा उपलब्ध नहीं होता अर्थात वह नाशवान और दुःखरूप प्रतीत होता है। ‘नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा’- किसी वस्तु के आदि, मध्य और अंत का ज्ञान दो तरह का होता है- देशकृत और कालकृत। इस संसार का कहाँ से आरंभ है, कहाँ मध्य है और कहाँ इसका अंत होता है?- इस प्रकार से संसार के ‘देशकृत’ आदि, मध्य, अंत का पता नहीं; और कबसे इसका आरंभ हुआ है, कब तक यह रहेगा और कब इसका अंत होगा? इस प्रकार से संसार के ‘कालकृत’ आदि, मध्य, अंत का भी पता नहीं। मनुष्य किसी विशाल प्रदर्शनी में तरह-तरह की वस्तुओं को देखकर मुग्ध हुआ घूमता रहे, तो वह उस प्रदर्शनी का आदि-अंत नहीं जान सकता। उस प्रदर्शनी से बाहर निकलने पर ही वह उसके आदि-अंत को जान सकता है। इसी तरह संसार से संबंध मानकर भोगों की तरफ वृत्ति रखते हुए इस संसार का आदि-अंत कभी जानने में नहीं आ सकता। मनुष्य के पास संसार के आदि-अंत का पता लगाने के लिए जो साधन (इंद्रियाँ, मन और बुद्धि) हैं, वे सब संसार के ही अंश हैं। यह नियम है कि कार्य अपने कारण में विलीन तो हो सकता है पर उसको जान नहीं सकता। जैसे मिट्टी का घड़ा पृथ्वी को अपने भीतर नहीं ला सकता, ऐसे ही व्यष्टि इंद्रियाँ-मन-बुद्धि समष्टि संसार और उसके कार्य को अपनी जानकारी में नहीं ला सकते। अतः संसार से (मन, बुद्धि, इंद्रियों से भी) अलग होने पर भी संसार का स्वरूप (‘स्वयं’ के द्वारा) ठीक-ठीक जाना जा सकता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 2:42; 16।11
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