श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
पंचदश अध्याय
भोगों के परिणाम पर दृष्टि रखने की योग्यता भी मनुष्य शरीर में ही है। परिणाम पर दृष्टि न रखकर भोग भोगने वाले मनुष्य को पशु कहना भी मानो पशुयोनि की निन्दा ही करना है; क्योंकि पशु तो अपने कर्मफल भोगकर मनुष्य योनि की तरफ आ रहा है, पर यह मनुष्य तो निषिद्ध भोग भोगकर पशुयोनि की तरफ ही जा रहा है। संबंध- पीछे के दो श्लोकों में संसारवृक्ष का जो वर्णन किया गया है, उसका प्रयोजन क्या है- इसको भगवान आगे के श्लोक में बताते हैं। |
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