श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
चतुर्दश अध्याय
मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते । अर्थ- जो मनुष्य अव्यभिचारी भक्तियोग के द्वारा मेरा सेवन करता है, वह इन गुणों का अतिक्रमण करके ब्रह्मप्राप्ति का पात्र हो जाता है। व्याख्या- [यद्यपि भगवान ने इसी अध्याय के उन्नीसवें बीसवें, श्लोकों में गुणों का अतिक्रमण करने का उपाय बता दिया था, तथापि अर्जुन ने इक्कीसवें श्लोक में गुणातीत होने का उपाय पूछ लिया। इससे यह मालूम होता है कि अर्जुन इस उपाय के सिवाय गुणातीत होने के लिए दूसरा कोई उपाय जानना चाहते हैं। अतः अर्जुन को भक्ति का अधिकारी समझकर भगवान उनको गुणातीत होने का उपाय भक्ति बताते हैं।] ‘मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते’- इन पदों में उपासक, उपास्य और उपासना- ये तीनों आ गए हैं अर्थात ‘यः’ पद से उपासक, ‘माम्’ पद से उपास्य और ‘अव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते’ पदों से उपासना आ गयी है। ‘अव्यभिचारेण’ पद का तात्पर्य है कि दूसरे किसी का भी सहारा न हो। सांसारिक सहारा तो दूर रहा, ज्ञानयोग, कर्मयोग आदि योगों (साधनों) का भी सहारा न हो! और ‘भक्तियोगेन’ पद का तात्पर्य है कि केवल भगवान का ही सहारा हो, आश्रय हो, आशा हो, बल हो, विश्वास हो। इस तरह ‘अव्यभिचारेण’ पद से दूसरों का आश्रय लेने का निषेध करके ‘भक्तियोगेन’ पद से केवल भगवान का ही आश्रय लेने की बात कही गयी है। ‘सेवते’ पद का तात्पर्य है कि अव्यभिचारी भक्तियोग के द्वारा भगवान का भजन करे, उनकी उपासना करे, उनके शरण हो जाए, उनके अनुकूल चले। ‘स गुणान्समतीत्यैतान्’- जो अनन्यभाव से केवल भगवान के ही शरण हो जाता है, उसको गुणों का अतिक्रमण करना नहीं पड़ता, प्रत्युत भगवान की कृपा से उसके द्वारा स्वतः गुणों का अतिक्रमण हो जाता है।[1] ‘ब्रह्मभूयाय कल्पते’- वह गुणों का अतिक्रमण करके ब्रह्मप्राप्ति का पात्र (अधिकारी) हो जाता है। भगवान ने जब यहाँ भक्ति की बात बतायी है, तो फिर भगवान को यहाँ ब्रह्मप्राप्ति की बात न कहकर अपनी प्राप्ति की बात बतानी चाहिए थी। परंतु यहाँ ब्रह्मप्राप्ति की बात बताने का तात्पर्य यह है कि अर्जुन ने गुणातीत होने- (निर्गुण ब्रह्म की प्राप्ति) का उपाय पूछा था। इसलिए भगवान ने अपनी भक्ति को ब्रह्मप्राप्ति का उपाय बताया। दूसरी बात, शास्त्रों में कहा गया है कि भगवान की उपासना करने वाले को ज्ञान की भूमिकाओं की सिद्धि के लिए दूसरा कोई साधन, प्रयत्न नहीं करना पड़ता, प्रत्युत उसके लिए ज्ञान की भूमिकाएँ अपने-आप सिद्ध हो जाती हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 12।6-7
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