श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
चतुर्दश अध्याय
उसी बात को लक्ष्य करके भगवान यहाँ कह रहे हैं कि अव्यभिचारी भक्तियोग से मेरा सेवन करने वाले को ब्रह्मप्राप्ति का पात्र बनने के लिए दूसरा कोई साधन नहीं करना पड़ता, प्रत्युत वह अपने-आप ब्रह्मप्राप्ति का पात्र हो जाता है। परंतु वह भक्त ब्रह्मप्राप्ति में संतोष नहीं करता। उसका तो यही भाव रहता है कि भगवान कैसे प्रसन्न हों? भगवान की प्रसन्नता में ही उसकी प्रसन्नता होती है। तात्पर्य यह निकला की जो केवल भगवान के ही परायण है, भगवान में ही आकृष्ट है, उसके लिए ब्रह्मप्राप्ति स्वतः सिद्ध है। हाँ, वह ब्रह्मप्राप्ति को महत्त्व दे अथवा न दे- यह बात दूसरी है, पर वह ब्रह्मप्राप्ति का अधिकारी स्वतः हो जाता है।
तीसरी बात, जिस तत्त्व की प्राप्ति ज्ञानयोग, कर्मयोग आदि साधनों से होती है, उसी तत्त्व की प्राप्ति भक्ति से भी होती है। साधनों में भेद होने पर भी उस तत्त्व की प्राप्ति में कोई भेद नहीं होता।
संबंध- उपासना तो करे भगवान की और पात्र बन जाए ब्रह्मप्राप्ति का यह कैसे? इसका उत्तर आगे के श्लोक में देते हैं।
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