श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
चतुर्दश अध्याय
विशेष बात शरीर के साथ जीव दो तरह से अपना संबंध जोड़ता है- (1) अभेदभाव से- अपने को शरीर में बैठना, जिससे ‘मैं शरीर हूँ’ ऐसा दीखने लगता है, और (2) भेदभाव से- शरीर को अपने में बैठना, जिससे ‘शरीर मेरा है’ ऐसा दीखने लगता है। अभेदभाव से संबंध जोड़ने से जीव अपने को शरीर मान लेता है, जिसको ‘अहंता’ कहते हैं; और भेदभाव से संबंध जोड़ने से जीव शरीर को अपना मान लेता है, जिसको ‘ममता’ कहते हैं। इस प्रकार शरीर से अपना संबंध जोड़ने पर सत्त्व, रज, और तम- तीनों गुण अपनी वृत्तियों के द्वारा शरीर में अहंता-ममता दृढ़ करके जीव को बाँध देते हैं। जैसे विवाह हो जाने पर पत्नी के पूरे परिवार (ससुराल) के साथ संबंध जुड़ जाता है, पत्नी के वस्त्राभूषण आदि की आवश्यकता अपनी आवश्यकता प्रतीत होने लगती है, ऐसे ही शरीर के साथ मैं-मेरे का संबंध हो जाने पर जीव का पूरे संसार के साथ संबंध जुड़ जाता है और शरीर-निर्वाह की वस्तुओं को वह अपनी आवश्यकता मानने लग जाता है। अनित्य शरीर से संबंध (एकात्मता) मानने के कारण वह अनित्य शरीर को नित्य रखने की इच्छा करने लगता है; क्योंकि वह स्वयं नित्य है। शरीर के साथ संबंध मानने के कारण ही उसको मारने का भय लगने लगता है; क्योंकि शरीर मरने वाला है। यदि शरीर से संबंध न रहे, तो फिर न तो नित्य बने रहने की इच्छा होगी और न मरने का भय ही होगा। अतः जब तक नित्य बने रहने की इच्छा और मरने का भय है, तब तक वह गुणों से बँधा हुआ है। जीव स्वयं अविनाशी है और शरीर विनाशी है। शरीर का प्रतिक्षण अपने-आप वियोग हो रहा है। जिसका अपने आप वियोग हो रहा है, उससे संबंध-विच्छेद करने में क्या कठिनता और क्या उद्योग? उद्योग है तो केवल इतना ही है कि स्वतः वियुक्त होने वाली वस्तु को पकड़ना नहीं है। उसको न पकड़ने से अपने अविनाशी, गुणातीत स्वरूप का अपने-आप अनुभव हो जाएगा। संबंध- पूर्वश्लोक में भगवान ने सत्त्व, रज और तम- इन तीनों गुणों के द्वारा देही के बाँधे जाने की बात कही। उन तीनों गुणों में से सत्त्वगुण का स्वरूप और उसके बाँधने का प्रकार आगे के श्लोक में बताते हैं। |
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