श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
चतुर्दश अध्याय
तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम् । अर्थ- हे पापरहित अर्जुन! उन गुणों में सत्त्वगुण निर्मल (स्वच्छ) होने के कारण प्रकाशक और निर्विकार है। वह सुख और ज्ञान की आसक्ति से (देही को) बाँधता है। व्याख्या- ‘तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्’- पूर्वश्लोक में सत्त्व, रज और तम- इन तीनों गुणों की बात कही। इन तीनों गुणों में सत्गुण निर्मल (मलरहित) है। तात्पर्य है कि रजोगुण और तमोगुण की तरह सत्त्वगुण में मलिनता नहीं है, प्रत्युत यह रजोगुण और तमोगुण की अपेक्षा निर्मल, स्वच्छ है। निर्मल होने के कारण यह परमात्मतत्त्व का ज्ञान कराने में सहायक है। ‘प्रकाशकम्’- सत्त्वगुण निर्मल, स्वच्छ होने के कारण प्रकाश करने वाला है। जैसे प्रकाश के अंतर्गत वस्तुएं साफ-साफ दीखती है, ऐसे ही सत्त्वगुण की अधिकता होने से रजोगुण और तमोगुण की वृत्तियाँ साफ-साफ दीखती हैं। रजोगुण और तमोगुण से उत्पन्न होने वाले काम, क्रोध, लोभ, मद, मात्सर्य आदि दोष भी साफ-साफ दीखते हैं अर्थात इन सब विकारों का साफ-साफ ज्ञान होता है। सत्त्वगुण की वृद्धि होने पर इंद्रियों में प्रकाश, चेतना और हलकापन विशेषता से प्रतीत होता है, जिससे प्रत्येक पारमार्थिक अथवा लौकिक विषय को अच्छी तरह समझने में बुद्धि पूरी तरह कार्य करती है और कार्य करने में बड़ा उत्साह रहता है। सत्त्वगुण के दो रूप हैं- (1) शुद्ध सत्त्व, जिसमें उद्देश्य परमात्मा का होता है, और (2) मलिन सत्त्व, जिसमें उद्देश्य सांसारिक भोग और संग्रह का होता है।[1] शुद्ध सत्त्वगुण में परमात्मा का उद्देश्य होने से परमात्मा की तरफ चलने में स्वाभाविक रुचि होती है। मलिन सत्त्वगुण में पदार्थों के संग्रह और सुखभोग का उद्देश्य होने से सांसारिक प्रवृत्तियों में रुचि होती है, जिससे मनुष्य बँध जाता है। मलिन सत्त्वगुण में भी बुद्धि सांसारिक विषय को अच्छी तरह समझने में समर्थ होती है। जैसे, सत्त्वगुण की वृद्धि में ही वैज्ञानिक नये-नये आविष्कार करता है; किंतु उसका उद्देश्य परमात्मा की प्राप्ति न होने से वह अहंकार, मान-बड़ाई, धन आदि से संसार में बँधा रहता है। ‘अनामयम्’- सत्त्वगुण रज और तम की अपेक्षा विकाररहित है। वास्तव में प्रकृति का कार्य होने से यह सर्वथा निर्विकार नहीं है। सर्वथा निर्विकार तो अपना स्वरूप अथवा परमात्मतत्त्व ही है, जो कि गुणातीत है। परमात्मतत्त्व की प्राप्ति में सहायक होने से भगवान ने सत्त्वगुण को भी विकाररहित कह दिया है। ‘सुखसंगेन बन्धाति ज्ञानसंगेन चानघ’- जब अंतःकरण में सात्त्विक वृत्ति होती है, कोई विकार नहीं होता है, तब एक सुख मिलता है, शान्ति मिलती है। उस समय साधक के मन में यह विचार आता है कि ऐसा सुख हरदम बना रहे, ऐसी शान्ति हरदम बनी रहे, ऐसी निर्विकारता हरदम बनी रहे। परंतु जब ऐसा सुख, शान्ति निर्विकारता नहीं रहती, तब साधक को अच्छा नहीं लगता। यह अच्छा लगना और अच्छा न लगना ही सत्त्वगुण के सुख में आसक्ति है जो बाँधने वाली है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ परमात्मा का उद्देश्य न रहने के कारण इसको ‘मलिन सत्त्व’ कहा गया है। मलिन सत्त्व में रजोगुण साथ रहता है।
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