श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
समः शत्रौ च मित्रै च तथा मानापमानयोः । अर्थ- जो शत्रु और मित्र में तथा मान-अपमान में सम है और शीत-उष्ण (अनुकूलता-प्रतिकूलता) तथा सुख-दुःख में सम है एवं आसक्ति से रहित है, और जो निंदा-स्तुति को समान समझने वाला, मननशील, जिस किसी प्रकार से भी (शरीर का निर्वाह होने में) संतुष्ट, रहने के स्थान तथा शरीर में ममता-आसक्ति से रहित और स्थिर बुद्धि वाला है, वह भक्तिमान मनुष्य मुझे प्रिय है। व्याख्या- ‘समः शत्रौ च मित्रे च’- यहाँ भगवान ने भक्त में व्यक्तियों के प्रति होने वाली समता का वर्णन किया है। सर्वत्र भगवद्बुद्धि होने तथा राग-द्वेष से रहित होने के कारण सिद्ध भक्त का किसी के भी प्रति शत्रु-मित्र का भाव नहीं रहता। लोग ही उसके व्यवहार में अपने स्वभाव के अनुसार अनुकूलता या प्रतिकूलता को देखकर उसमें मित्रता या शत्रुता का आरोप कर लेते हैं। साधारण लोगों का तो कहना ही क्या है, सावधान रहने वाले साधनों का भी उस सिद्ध भक्त के प्रति मित्रता और शत्रुता का का भाव हो सकता है। परंतु भक्त अपने-आप में सदैव पूर्णतया सम रहता है। उसके हृदय में कभी किसी के प्रति शत्रु-मित्र का भाव उत्पन्न नहीं होता। मान लिया जाए कि भक्त के प्रति शत्रुता और मित्रता का भाव रखने वाले दो व्यक्तियों में धन के बँटवारे से संबंधित कोई विवाद हो जाए और उसका निर्णय कराने के लिए वे भक्त के पास जाएं, तो भक्त का धन बँटवारा करते समय शत्रु-भाव वाले व्यक्ति को कुछ अधिक और मित्र-भाव वाले व्यक्ति को कुछ कम धन देगा। यद्यपि भक्त के इस निर्णय (व्यवहार) में विषमता दिखती है, तथापि शत्रु-भाव वाले व्यक्ति को इस निर्णय में समता दिखायी देगी कि इसने पक्षपातरहित बँटवारा किया है। अतः भक्त के इस निर्णय में विषमता (पक्षपात) दिखने पर भी वास्तव में यह (समता को उत्पन्न करने वाला होने से) समता ही कहलायेगी। उपर्युक्त पदों से यह भी सिद्ध होता है कि सिद्ध भक्त के साथ ही लोग (अपने भाव के अनुसार) शत्रुता-मित्रता का व्यवहार करते हैं और उसके व्यवहार से अपने को उसका शत्रु-मित्र मान लेते हैं। इसीलिए उसे यहाँ शत्रु-मित्र से रहित न कहकर ‘शत्रु-मित्र में सम’ कहा गया है। ‘तथा मानापमानयोः’- मान अपमान परकृत क्रिया है, जो शरीर के प्रति होती है। भक्त की अपने कहलाने वाले शरीर में न तो अहंता होती है, न ममता। इसलिए शरीर का मान-अपमान होने पर भी भक्त के अंतःकरण में कोई विकार (हर्ष-शोक) पैदा नहीं होता। वह नित्य-निरंतर समता में स्थित रहता है। ‘शीतोष्णसुखदुःखेषु समः’- इन पदों में दो स्थानों पर सिद्ध भक्त की समता बतायी गयी है-
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