श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
साधारण मनुष्य धनादि अनुकूल पदार्थों की प्राप्ति में सुख तथा प्रतिकूल पदार्थों की प्राप्ति में दुःख का अनुभव करते हैं। परंतु उन्हीं पदार्थों के प्राप्त होने अथवा न होने पर सिद्ध भक्त के अंतःकरण में कभी किञ्चिन्मात्र भी राग-द्वेष, हर्ष-शोकादि विकार नहीं होते। वह प्रत्येक परिस्थिति में सम रहता है। ‘सुख-दुःख में सम’ रहने तथा ‘सुख-दुःख से रहति’ होने- दोनों का गीता में एक ही अर्थ में प्रयोग हुआ है। सुख-दुःख की परिस्थिति अवश्याम्भावी है; अतः उससे रहित होना संभव नहीं है। इसलिए भक्त अनुकूल तथा प्रतिकूल परिस्थितियों में सम रहता है। हाँ, अनुकूल तथा प्रतिकूल परिस्थिति को लेकर अंतःकरण में जो हर्ष-शोक होते हैं, उनसे रहित हुआ जा सकता है। इस दृष्टि से गीता में जहाँ ‘सुख-दुःख में सम’ होने की बात आयी है, वहाँ सुख-दुःख की परिस्थिति में सम समझना चाहिए और जहाँ ‘सुख-दुःख से रहित’ होने की बात आयी है, वहाँ (अनुकूल तथा प्रतिकूल परिस्थिति की प्राप्ति से होने वाले) हर्ष-शोक से रहित समझना चाहिए। ‘संगविवर्जितः’- ‘संग’ शब्द का अर्थ संबंध (संयोग) तथा आसक्ति दोनों ही होते हैं। मनुष्य के लिए यह संभव नहीं है वह स्वरूप से सब पदार्थों का संग अर्थात संबंध छोड़ सके; क्योंकि जब तक मनुष्य जीवित रहता है, तब तक शरीर-मन-बुद्धि-इंद्रियाँ उसके साथ रहती ही हैं। हाँ, शरीर से भिन्न कुछ पदार्थों का त्याग स्वरूप से किया जा सकता है। जैसे किसी व्यक्ति ने स्वरूप से प्राणी-पदार्थों का संग छोड़ दिया, पर उसके अंतःकरण में अगर उनके प्रति किञ्चिन्मात्र भी आसक्ति बनी हुई है, तो उन प्राणी-पदार्थ से दूर होते हुए भी वास्तव में उसका उनसे संबंध बना हुआ ही है। दूसरी ओर, अगर अंतःकरण में प्राणी-पदार्थों की किञ्चिन्मात्र भी आसक्ति नहीं है, तो पास रहते हुए भी वास्तव में उनसे संबंध नहीं है। अगर पदार्थों का स्वरूप से त्याग करने पर ही मुक्ति होती, तो मरने वाला हरेक व्यक्ति मुक्त हो जाता; क्योंकि उसने तो अपने शरीर का भी त्याग कर दिया! परंतु ऐसी बात है नहीं। अंतःकरण में आसक्ति के रहते हुए शरीर का त्याग करने पर भी संसार का बंधन बना रहता है। अतः मनुष्य को सांसारिक आसक्ति ही बाँधने वाली है, न कि सांसारिक प्राणी-पदार्थों का स्वरूप से संबंध। |
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