श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
नित्यप्राप्त परमात्मा की अनुभूति होती है, प्राप्ति नहीं। जहाँ ‘परमात्मा की प्राप्ति’ कहा जाता है, वहाँ उसका अर्थ नित्यप्राप्त की प्राप्ति या अनुभव ही मानना चाहिए। वह प्राप्ति साधनों से नहीं होती, प्रत्युत जड़ता के त्याग से होती है। ममता, कामना और आसक्ति ही जड़ता है। शरीर, मन, इंद्रियाँ, पदार्थ आदि को ‘मैं’ या ‘मेरा’ मानना ही जड़ता है। ज्ञान, अभ्यास, ध्यान, तप आदि साधन करते-करते जब जड़ता से संबंध-विच्छेद होता है, तभी नित्यप्राप्त परमात्मा की अनुभूति होती है। इस जड़ता का त्याग जितना कर्मफलत्याग से अर्थात् कर्मयोग से सुगम होता है, उतना ज्ञान, अभ्यास, ध्यान, तप आदि से नहीं। कारण कि ज्ञानादि साधनों में शरीरादि को अपना और साधन को अपने लिए मानते रहने से जड़ता- (शरीर, मन, बुद्धि, इंद्रियाँ-) से विशेष संबंध बना रहता है। इन साधनों का लक्ष्य परमात्म प्राप्ति होने से आखिर में सफलता तो मिल जाती है; किंतु उसमें देरी और कठिनाई होती है। परंतु कर्मयोग में आरंभ से ही जड़ता के त्याग का लक्ष्य रहता है। जड़ता का संबंध ही नित्यप्राप्त परमात्मा की अनुभूति में प्रधान बाधा है- यह बात अन्य साधनों में स्पष्ट प्रतीत नहीं होती। जब साधक यह दृढ़ निश्चय कर लेता है कि मेरे को कभी किसी परिस्थिति में मन, वाणी अथवा क्रिया से चोरी, झूठ, व्यभिचार, हिंसा, छल, कपट, अभक्ष्य-भक्षण आदि कोई शास्त्र-विरुद्ध कर्म नहीं करने हैं, तब उसके द्वारा स्वतः विहित कर्म होने लगते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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