गीता 18:6

गीता अध्याय-18 श्लोक-6 / Gita Chapter-18 Verse-6

एतान्यपि तु कर्माणि सग्ङंत्यक्त्वा फलानि च ।
कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम् ॥6॥



इसलिये हे पार्थ[1]! इन यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों को तथा और भी सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मों को आसक्ति और फलों का त्याग करके अवश्य करना चाहिये; यह मेरा निश्चय किया हुआ उत्तम मत है ॥6॥

Hence these acts of sacrifice, charity and penance, and all other acts too, must be performed without attachment and hope of reward; this is My considered and supreme verdict, Arjuna.(6)


पार्थ = हे पार्थ ; एतानि = यह यज्ञ, दान और तपरूप कर्म ; तु = तथा ; (अन्यानि) = और ; अपि = भी ; कर्माणि = संपूर्ण श्रेष्ठ कर्म ; सग्डम् = आसक्ति को ; च = और ; फलानि = फलों को ; त्यक्त्वा = त्यागकर (आवश्य) ; कर्तव्यानि = करने चाहिये ; इति = ऐसा ; मे = मेरा ; निश्चितम् = निश्चय किया हुआ ; उत्तमम् = उत्तम ; मतम् = मत है ;



अध्याय अठारह श्लोक संख्या
Verses- Chapter-18

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34 | 35 | 36, 37 | 38 | 39 | 40 | 41 | 42 | 43 | 44 | 45 | 46 | 47 | 48 | 49 | 50 | 51, 52, 53 | 54 | 55 | 56 | 57 | 58 | 59 | 60 | 61 | 62 | 63 | 64 | 65 | 66 | 67 | 68 | 69 | 70 | 71 | 72 | 73 | 74 | 75 | 76 | 77 | 78

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पार्थ, भारत, धनंजय, पृथापुत्र, परन्तप, गुडाकेश, निष्पाप, महाबाहो सभी अर्जुन के सम्बोधन है।

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः