श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्धय्यानं विशिष्यते । अर्थ- अभ्यास से शास्त्रज्ञान श्रेष्ठ है, शास्त्रज्ञान से ध्यान श्रेष्ठ है और ध्यान से भी सब कर्मों के फल का त्याग श्रेष्ठ है। कर्मफलत्याग से तत्काल ही परमशांति प्राप्त हो जाती है। व्याख्या- [ भगवान ने आठवें श्लोक से ग्यारहवें श्लोक तक एक-एक साधन में असमर्थ होने पर क्रमशः समर्पण-योग, अभ्यासयोग, भगवदर्थ कर्म और कर्मफल त्याग- ये चार साधन बताये। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि क्रमशः पहले साधन की अपेक्षा आगे का साधन नीचे दर्जे का है, और अंत में कहा गया कर्मफलत्याग का साधन सबसे नीचे दर्जे का है। इस बात की पुष्टि इससे भी होती है कि पहले के तीन साधनों में भगवत्प्राप्ति रूप फल की बात (‘निवसिष्यसि मय्येव’, ‘मामिच्छाप्तुम्’ तथा ‘सिद्धिमवाप्स्यसि’- इन पदों द्वारा) साथ-साथ कही गयी; परंतु ग्यारहवें श्लोक में जहाँ कर्मफलत्याग करने की आज्ञा दी गयी है, वहाँ उसका फल भगवत्प्राप्ति नहीं बताया गया। उपर्युक्त धारणाओं को दूर करने के लिए यह बारहवाँ श्लोक कहा गया है। इसमें भगवान ने कर्मफलत्याग को श्रेष्ठ और तत्काल परमशान्ति देने वाला बताया है, जिससे कि इस चौथे साधन को कोई निम्न श्रेणी का न समझ ले। कारण कि इस साधन में आसक्ति, ममता और फलेच्छा के त्याग की ही प्रधानता होने से जिस तत्त्व की प्राप्ति समर्पण योग, अभ्यास योग एवं भगवदर्थ कर्म करने से होती है, ठीक उसी तत्त्व की प्राप्ति कर्मफल त्याग से भी होती है। वास्तव में उपर्युक्त चारों साधन स्वतंत्रता से भगवत्प्राप्ति कराने वाले हैं। साधकों की रुचि, विश्वास और योग्यता की भिन्नता के कारण ही भगवान ने आठवें से ग्यारहवें श्लोक तक अलग-अलग साधन कहे हैं। जहाँ तक कर्मफलत्याग के फल (भगवत्प्राप्ति) को अलग से बारहवें श्लोक में कहने का प्रश्न है, उसमें यही विचार करना चाहिए कि समर्पण योग, अभ्यासयोग एवं भगवदर्थ कर्म करने से भगवत्प्राप्ति होती है, यह तो प्रायः प्रचलित ही है; किंतु कर्मफलत्याग से भी भगवत्प्राप्ति होती है, यह बात प्रचलित नहीं है। इसीलिए प्रचलित साधनों की अपेक्षा इसकी श्रेष्ठता बताने के लिए बारहवाँ श्लोक कहा गया है और उसी में कर्मफलत्याग का फल कहना उचित प्रतीत होता है।] ‘श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासात्’- महर्षि पतञ्जलि कहते हैं- ‘तत्र स्थितौ यत्रौऽभ्यासः।’[1] अर्थात किसी एक विषय में स्थिति (स्थिरता) प्राप्त करने के लिए बार-बार प्रयत्न करने का नाम ‘अभ्यास’ है। यहाँ (इस श्लोक में) ‘अभ्यास’ शब्द केवल अभ्यास रूप क्रिया का वाचक है, अभ्यासयोग का वाचक नहीं; क्योंकि इस (प्राणायाम, मनोनिग्रह आदि) अभ्यास में शास्त्रज्ञान और ध्यान नहीं है तथा कर्मफल की इच्छा का त्याग भी नहीं है। जड़ता से संबंध-विच्छेद होने पर ही योग होता है, जबकि उपर्युक्त अभ्यास में जड़ता (शरीर, इंद्रियाँ, मन, बुद्धि) का आश्रय रहता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ योगदर्शन 1।13
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