श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
एकादश अध्याय
ग्यारहवें अध्याय में ग्यारह रसों का वर्णन इस प्रकार हुआ- देवरूप का वर्णन होने से ‘शान्तरस’;[1] स्वर्ग से पृथ्वी तक और दसों दिशाओं में व्याप्त विराटरूप का वर्णन होने से ‘अद्भुतरस’;[2] अपनी जिह्वा से सबका ग्रसन कर रहे हैं और सबका संहार करने के लिए कालरूप से प्रवृत्त हुए हैं- ऐसा रूप धारण किए होने से ‘रौद्ररस’;[3] भयंकर विकराल मुख और दाढ़ों वाला रूप होने से ‘बीभत्सरस’;[4] तुम युद्ध के लिए खड़े हो जाओ- इस रूप में ‘वीर रस’;[5] लम्बे पड़कर दण्डवत-प्रणाम आदि करने से ‘दास्यरस’;[6] मुख्य-मुख्य योद्धाओं को तथा अन्य राजा लोगों को भगवान के मुख में जाते हुए देखने से ‘करुणरस’;[7] दृष्टान्त से मित्र मित्र के, पिता पुत्र के और पति पत्नी के अपमान को सह लेता है- इस रूप में क्रमशः ‘सख्यरस’, ‘वात्सल्यरस’ और ‘माधुर्यरस’ का वर्णन हुआ है[8] और हँसी आदि की स्मृति रूप से ‘हास्यरस’ का वर्णन हुआ है।[9] संबंध- अब आगे के दो श्लोकों में अर्जुन चतुर्भुज रूप दिखाने के लिए प्रार्थना करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 11।15-18
- ↑ गीता 11:20
- ↑ 11।30, 32
- ↑ 11।23-25
- ↑ गीता 11:33
- ↑ गीता 11:44 का पूर्वार्ध
- ↑ 11।28-29
- ↑ गीता 11:44 का उत्तरार्ध
- ↑ 11।42 का पूर्वार्ध
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