श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
एकादश अध्याय
अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्टवा भयेन च प्रव्यथितं मनो मे । अर्थ- मैंने ऐसा रूप पहले कभी नहीं देखा। इस रूप को देखकर मैं हर्षित हो रहा हूँ और (साथ ही साथ) भय से मेरा मन अत्यंत व्यथित हो रहा है। अतः आप मुझे अपने उसी देवरूप को (सौम्य विष्णुरूप को) दिखाइये। हे देवेश! हे जगन्निवास! आप प्रसन्न होइये। व्याख्या- [जैसे विराटरूप दिखाने के लिए मैंने भगवान से प्रार्थना की तो भगवान ने मुझे विराटरूप दिखा दिया, ऐसे ही देवरूप दिखाने के लिए प्रार्थना करने पर भगवान देवरूप दिखायेंगे ही- ऐसी आशा होने से अर्जुन भगवान से देवरूप दिखाने के लिए प्रार्थना करते हैं।] ‘अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्टवा भयेन च प्रव्यथितं मनो मे’- आपका ऐसा अलौकिक आश्चर्य विशाल रूप मैंने पहले कभी नहीं देखा। आपका ऐसा भी रूप है- ऐसी मेरे मन में संभावना भी नहीं थी। ऐसा रूप देखने की मेरे में कोई योग्यता भी नहीं थी। यह तो केवल आपने अपनी तरफ से ही कृपा करके दिखाया है। इससे मैं अपने-आपको बड़ा सौभाग्यशाली मानकर हर्षित हो रहा हूँ, आपकी कृपा को देखकर गद्गद हो रहा हूँ। परंतु साथ-ही-साथ आपके स्वरूप की उग्रता को देखकर मेरा मन भय के कारण अत्यतं व्यथित हो रहा है, व्याकुल हो रहा है, घबरा रहा है। ‘तदेव मे दर्शय देवरूपम्’- ‘तत्’ (वह) शब्द परोक्षवाची है; अतः ‘तदेव’ (तत् एव) कहने से ऐसा मालूम देता है कि अर्जुन ने देवरूप (विष्णुरूप) पहले कभी देखा है, जो अभी सामने नहीं है। विश्वरूप देखने पर जहाँ अर्जुन की पहले दृष्टि पड़ी, वहाँ उन्होंने कमलासन पर विराजमान ब्रह्मा जी को देखा- ‘पश्यामि देवांस्तव देव देहे...... ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थम्’।[1] इससे सिद्ध होता है कि वह कमल जिसकी नाभि से निकला है, उस शेषशायी चतुर्भुज विष्णुरूप को भी अर्जुन ने देखा है। फिर सत्रहवें श्लोक में अर्जुन ने कहा है कि मैं आपको किरीट, गदा, चक्र (और ‘च’ पद से शंख और पद्म) धारण किए हुए देख रहा हूँ- ‘किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च’- इन दोनों बातों से यही सिद्ध हता है कि अर्जुन ने विश्वरूप के अंतर्गत भगवान के जिस विष्णुरूप को देखा था,उसी के लिए अर्जुन यहाँ ‘वही देवरूप मेरे को दिखाइये’ ऐसा कह रहे हैं।[2] ‘देवरूपम्’ कहने का तात्पर्य है कि मैंने विराटरूप में आपके विष्णुरूप को भी देखा था, पर अब आप मेरे को केवल विष्णुरूप ही दिखाइये। दूसरी बात, पंद्रहवें श्लोक में भी अर्जुन भगवान के लिए ‘देव’ कहा है- ‘पश्यामि देवांस्तव देव देहे’ और यहाँ भी देवरूप दिखाने के लिए कहते हैं इसका तात्पर्य है कि विराटरूप भी नहीं और मनुष्य रूप भी नहीं, केवल देवरूप दिखाइये। आगे के (छियालीसवें) श्लोक में भी ‘तनैव’ पद से विराटरूप और मनुष्य का निषेध करके भगवान से चतुर्भुज विष्णुरूप बन जाने के लिए प्रार्थना करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 11:15
- ↑ आगे उनचासवें श्लोक में ‘पुनः’ तता ‘तदेव’ पद से भगवान ने और पचासवें श्लोक में ‘भूयः’ पद से संजय ने भी उसी (विश्वरूप अंतर्गत देखे गए) चतुर्भुज रूप को दिखाने की बात कही है।
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज