श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
एकादश अध्याय
भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया । अर्थ- हे कमलनयन! संपूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति और प्रलय मैंने विस्तारपूर्वक आपसे ही सुना है और आपका अविनाशी माहात्म्य भी सुना है। व्याख्या- ‘भवाप्ययौ हि भूतानां त्वत्तः श्रुतौ विस्तरशो मया’- भगवान ने पहले कहा था- मैं संपूर्ण जगत का प्रभाव और प्रलय हूँ, मेरे सिवाय अन्य कोई कारण नहीं है[1]; सात्त्विक, राजस और तामस भाव मेरे से ही होते हैं[2]; प्राणियों के अलग-अलग अनेक तरह के भाव मेरे से ही होते हैं[3]; संपूर्ण प्राणी मेरे से ही होते हैं और मेरे से ही सब चेष्टा करते हैं[4]; प्राणियों के आदि, मध्य तथा अंत मैं ही हूँ[5]; और संपूर्ण सृष्टियों के आदि, मध्य तथा अंत मैं ही हूँ।[6] इसी को लेकर अर्जुन यहाँ कहते हैं कि मैंने आपसे प्राणियों की उत्पत्ति और प्रलय का वर्णन विस्तार से सुना है। इसका तात्पर्य प्राणियों की उत्पत्ति और विनाश सुनने से नहीं है, प्रत्युत इसका तात्पर्य यह सुनने से है कि सभी प्राणी आपसे ही उत्पन्न होते हैं, आपमें ही रहते हैं और आपमें ही लीन हो जाते हैं अर्थात सब कुछ आप ही हैं। ‘माहात्म्यमपि चाव्ययम्’- आपने दसवें अध्याय के सातवें श्लोक में बताया कि मेरी विभूति और योग को जो तत्त्व से जानता है, वह अविकम्प भक्तियोग से युक्त हो जाता है। इस प्रकार आपकी विभूति और योग को तत्त्व से जानने का माहात्म्य भी मैंने सुना है। माहात्म्य को ‘अव्यय’ कहने का तात्पर्य है कि भगवान की विभूति और योग को तत्त्व से जानने पर भगवान में जो भक्ति होती है, प्रेम होता है, भगवान से अभिन्नता होती है, वह सब अव्यय है। कारण कि भगवान अव्यय, नित्य हैं तो उनकी भक्ति, प्रेम भी अव्यय ही होगा। संबंध- अब आगे के दो श्लोकों में अर्जुन विराट रूप के दर्शन के लिए भगवान से प्रार्थना करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 7।6-7
- ↑ गीता 7:12
- ↑ 10।4-5
- ↑ गीता 10:8
- ↑ गीता 10:20
- ↑ गीता 10:32
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