श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
एकादश अध्याय
एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्वर । अर्थ- हे पुरुषोत्तम! आप अपने-आपको जैसा कहते हैं, यह वास्तव में ऐसा ही है। हे परमेश्वर! आपके ईश्वर-संबंधी रूप को मैं देखना चाहता हूँ। व्याख्या- ‘पुरुषोत्तम’- यह संबंधोन देने का तात्पर्य है कि हे भगवन! मेरी दृष्टि में इस संसार में आपके समान कोई उत्तम, श्रेष्ठ नहीं है अर्थात आप ही सबसे उत्तम, श्रेष्ठ हैं। इस बात को आगे पंद्रहवें अध्याय में भगवान ने भी कहा है कि मैं क्षर से अतीत और अक्षर से उत्तम हूँ; अतः मैं शास्त्र और वेद में पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध हूँ।[1] ‘एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानम्’- हे पुरुषोत्तम! आपने[2] मेरे प्रति अपने अलौकिक प्रभाव का, सामर्थ्य का जो कुछ वर्णन किया, वह वास्तव में ऐसा ही है। यह संसार मेरे से ही उत्पन्न होता है और मेरे में ही लीन हो जाता है[3], मेरे सिवाय इसका और कोई कारण नहीं है[4], सब कुछ वासुदेव ही है[5], ब्रह्म, अध्यात्म, कर्म, अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ- रूप में मैं ही हूँ[6], अनन्य भक्ति से प्रापणीय परमतत्त्व मैं ही हूँ[7], मेरे से ही यह संपूर्ण संसार व्याप्त है, पर मैं संसार में और संसार मेरे में नहीं है [8], सत् और असत्- रूप से सब कुछ मैं ही हूँ[9], मैं ही संसार का मूल कारण हूँ और मेरे से ही संसार सत्ता-स्फूर्ति पाता है[10], यह सारा संसार मेरे ही किसी एक अंश में स्थित है [11] आदि-आदि। अपने-आपको आपने जो कुछ कहा है, वह सब-का-सब यथार्थ ही है। ‘परमेश्वर’- भगवान के मुख से अर्जुन ने पहले सुना है कि ‘मैं ही संपूर्ण प्राणियों की ओर संपूर्ण लोकों का महान ईश्वर हूँ’- ‘भूतानामीश्वरोऽपि’[12]; ‘सर्वलोकमहेश्वरम्’[13]। इसलिए अर्जुन यहाँ भगवान के विलक्षण प्रभाव से प्रभावित होकर उनके लिए ‘परमेश्वर’ संबोधन देते हैं, जिसका तात्पर्य है कि हे भगवन! वास्तव में आप ही परम ईश्वर हैं, आप ही संपूर्ण ऐश्वर्य के मालिक हैं। ‘द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरम्’- अर्जुन कहते हैं कि मैंने आपसे आपका माहात्म्यसहित प्रभाव सुन लिया है और इस विषय में मेरे हृदय में दृढ़ विश्वास भी हो गया है। ‘संपूर्ण संसार मेरे शरीर के एक अंश में है’- इसे सुनकर मेरे मन में आपके उस रूप को देखने की उत्कट लालसा हो रही है। दूसरा भाव यह है कि आप इतने विलक्षण और महान होते हुए भी मेरे साथ कितना स्नेह रखते हैं, कितनी आत्मीयता रखते हैं कि मैं जैसा कहता हूँ, वैसा ही आप करते हैं और जो कुछ पूछता हूँ, उसका आप उत्तर देते हैं। इस कारण आपसे कहने का, पूछने का किञ्चिन्मात्र भी संकोच न होने से मेरे मन में आपका वह रूप देखने की बहुत इच्छा हो रही है, जिसके एक अंश में संपूर्ण संसार व्याप्त है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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