श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
दशम अध्याय
यहाँ जो विभूतियों का वर्णन किया गया है, इसका तात्पर्य इनमें परिपूर्ण रूप से व्यापक परमात्मा के ऐश्वर्य से है। विभूतियों के रूप में प्रकट होने वाला मात्र ऐश्वर्य परमात्मा का है। वह ऐश्वर्य प्रकट हुआ है परमात्मा की योगशक्ति से। इसलिए जिस-किसी में जहाँ-कहीं विलक्षणता दिखायी दे, वह विलक्षणता भगवान की योगशक्ति से प्रकट हुए ऐश्वर्य (विभूति) की ही है, न कि उस वस्तु की। इस प्रकार योग और विभूति परमात्मा की हुई तथा उस योग और विभूति को तत्त्व से जानने का तात्पर्य यह हुआ कि उसमें विलक्षणता परमात्मा की है। अतः द्रष्टा की दृष्टि केवल उस परमात्मा की तरफ ही जानी चाहिए। यही इनको तत्त्व से जानना अर्थात मानना है।[1] ‘सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते’- उसकी मेरे में दृढ़ भक्ति हो जाती है। दृढ़ कहने का तात्पर्य है कि उसकी मेरे सिवाय कहीं भी किञ्चिन्मात्र भी महत्त्वबुद्धि नहीं होती। अतः उसका आकर्षण दूसरे में न होकर एक मेरे में ही होता है। ‘नात्र संशयः’- इसमें कोई संदेह की बात नहीं- ऐसा कहने का तात्पर्य है कि अगर उसको कहीं भी किञ्चिन्मात्र भी संदेह होता है तो उसने मेरे को तत्त्व से नहीं माना है। कारण कि उसने मेरे योग को अर्थात विलक्षण प्रभाव को और उससे उत्पन्न होने वाली विभूतियों को (ऐश्वर्य को) मेरे से अलग मानकर महत्त्व दिया है। मेरे को तत्त्व से जान लेने के बाद उसके सामने लौकिक दृष्टि से किसी तरह की विलक्षणता आ जाए, तो वह उस पर प्रभाव नहीं डाल सकेगी। उसकी दृष्टि उस विलक्षणता की तरफ न जाकर मेरी तरफ ही जाएगी। अतः उसकी मेरे में स्वाभाविक ही दृढ़ भक्ति होती है। संबंध- पूर्वश्लोक में भगवान ने बताया कि मेरी विभूति और योग को तत्त्व से जानने वाला अविचल भक्ति से युक्त हो जाता है। अतः विभूति और योग को तत्त्व से जानना क्या है? इसका विवेचन आगे के श्लोक में करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भक्ति का प्रकरण होने से यहाँ ‘तत्त्वतः वेत्ति’ (तत्त्वतः जानना) का अर्थ ‘तत्त्वतः मानना’ ही लेना चाहिए। कारण कि यहाँ भगवान ने ‘तत्त्वतः वेत्ति’ का फल अपने में दृढ़ भक्ति होना बताया है और आगे के श्लोक में भी ‘संसार मात्र का मूल कारण मैं ही हूँ और सब संसार मेरे से ही चेष्टा करता है’ ऐसा मानकर (इति मत्वा) भजन करने की बात कही है। जैसे जानना दृढ़ होता है, ऐसे ही मानना भी दृढ़ होता है अर्थात दृढ़ मान्यता तत्त्वज्ञान की तरह ही फल देती है। जैसे, ‘मैं हिंदू हूँ’ ‘मैं अमुक वर्णवाला हूँ’ आदि मान्यताओं को जब तक स्वयं नहीं छोड़ता, तब तक ये मान्यताएँ छूटती नहीं। इसी तरह ‘इन सब विभूतियों के मूल में भगवान ही हैं, यह मान्यता कभी मिटती नहीं। वर्ण, संप्रदाय आदि की मान्यता सच्ची नहीं है, प्रत्युत शरीर को लेकर होने से प्राकृत है और मिटने वाली है। परंतु सबके मूल में परमात्मा है’ यह मान्यता सच्ची है, वास्तविक है। अतः यह मान्यता कभी मिटती नहीं, प्रत्युत ज्ञान (तत्त्व से जानना) में परिणत होकर ज्ञानस्वरूप हो जाती है।
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