श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
दशम अध्याय
‘योग’ नाम समता, संबंध और सामर्थ्य का है। जो स्थिर परमात्मतत्त्व है, उसी से अपार सामर्थ्य आती है। कारण कि वह निर्विकार परमात्मतत्त्व महान सामर्थ्यशाली है। उसके समान सामर्थ्य किसी में हुई नहीं, होगी नहीं और हो सकती भी नहीं। मनुष्य में आंशिक रूप से वह सामर्थ्य निष्काम होने से आती है। कारण कि कामना होने से शक्ति का क्षय होता है और निष्काम होने से शक्ति का संचय होता है। आदमी काम करते-करते थक जाता है तो विश्राम करने से फिर काम करने की शक्ति आ जाती है, बोलते-बोलते थक जाता है तो चुप होने से फिर बोलने की शक्ति आ जाती है। जीते-जीते आदमी मर जाता है तो फिर जीने की शक्ति आ जाती है। सर्ग में शक्ति क्षीण होती है और प्रलय में शक्ति का संचय होता है। तात्पर्य यह हुआ कि प्रकृति के संबंध से शक्ति क्षीण होती है और उससे संबंध-विच्छेद होने पर महान शक्ति आ जाती है। ‘यो वेत्ति तत्त्वतः’- विभूति और योग को तत्त्व से जानने का तात्पर्य है कि संसार में कारण रूप से मेरा जो कुछ प्रभाव, सामर्थ्य है और उससे कार्यरूप में प्रकट होने वाली जितनी विशेषताएं दिखने में आती है, प्राणियों के अंतःकरण में प्रकट होने वाले जितने भाव हैं और प्रभावशाली व्यक्तियों में ज्ञान दृष्टि से, विवेक-दृष्टि से तथा संसार की उत्पत्ति और संचालन की दृष्टि से जो कुछ विलक्षणता है, उन सबके मूल में मैं ही हूँ और मैं ही सबका आदि हूँ। इस प्रकार जो मेरे को समझ लेता है, तत्त्व से ठीक मान लेता है, तो फिर वह उन सब विलक्षणताओं के मूल में केवल मेरे को ही देखता है। उसका भाव केवल मेरे ही होता है, व्यक्तियों, वस्तुओं की विशेषताओं में नहीं। जैसे, सुनार की दृष्टि गहनों पर जाती है तो गहनों के नाम, आकृति, उपयोग पर दृष्टि रहते हुए भी भीतर यह भाव रहता है कि तत्त्व से यह सब सोना ही है। ऐसे ही जहाँ- कहीं जो कुछ भी विशेषताएँ दिखे, उसमें दृष्टि भगवान पर ही जानी चाहिए कि उसमें जो कुछ विशेषता है, वह भगवान की ही है; वस्तु, व्यक्ति, क्रिया आदि की नहीं। |
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