दशम अध्याय
तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तम: ।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता।। 11 ।।
हे अर्जुन! उनके ऊपर अनुग्रह करने के लिये उनके अन्त:करण में स्थित हुआ मैं स्वयं ही उनके अज्ञानसहित अंधकार को प्रकाशमय तत्त्वज्ञान रूप दीपक के द्वारा नष्ट कर देता हूँ।। 11 ।।
प्रश्न- उन भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये मैं स्वयं ही उनके अज्ञानजनित अन्धकार का नाश कर देता हूँ, इस कथन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर- इस कथन से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि अपने भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये मैं स्वयं ही उनके अज्ञानजनित अन्धकार का नाश कर देता हूँ, इसके लिये उनकों कोई दूसरा साधन नहीं करना पड़ता।
प्रश्न- ‘अज्ञानजम्’ विशेषण के सहित ‘तमः’ पद किसका वाचक है और उसे मैं उनके आत्मभाव में स्थित हुआ नाश करता हूँ, भगवान् के इस कथन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर- अनादिसिद्ध अज्ञान से उत्पनन जो आवरणशक्ति है- जिसके कारण मनुष्य भगवान् के गुण, प्रभाव और स्वरूप को यथार्थ नहीं जानता- उसका वाचक यहाँ ‘अज्ञानजम्’ विशेषण के सहित ‘तमः’ पद है। ‘उसे मैं भक्तों के आत्मभाव में स्थित हुआ नाश करता हूँ’ इस कथन से भगवान् ने भक्ति की महिमा और अपने में विषमता के दोष का अभाव दिखलाया है। भगवान् के कथन का अभिप्राय यह है कि मैं सबके हृदयदेश में अन्तर्यामी रूप से सदा-सर्वदा स्थित रहता हूँ, तो भी लोग मुझे अपने में स्थित नहीं मानते; इसी कारण मैं उनका अज्ञानजनित अन्धकार नाश नहीं कर सकता। परंतु मेरे प्रेमी भक्त मुझे अपना अन्तर्यामी समझते हुए पूर्वश्लोकों में कहे हुए प्रकार से निरन्तर मेरा भजन करते हैं, इस कारण उनके अज्ञानजनित अन्धकार मैं सहज ही नाश कर देता हूँ।
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