श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
तृतीय अध्याय
अध्याय का संक्षेप- इस अध्याय के पहले और दूसरे श्लोकों में भगवान् के अभिप्राय को न समझने के कारण अर्जुन ने भगवान् को मानो उलाहना देते हुए उनसे अपना ऐकान्तिक श्रेयःसाधन बतलाने के लिये प्रार्थना की है और उसका उत्तर देते हुए भगवान् ने तीसरे में दो निष्ठाओं का वर्णन करके चौथे में किसी भी निष्ठा में स्वरूप से कर्मों का त्याग आवश्यक नहीं है, ऐसा सिद्ध किया है। पाँचवें में क्षणमात्र के लिये भी कर्मों का सर्वथा त्याग असम्भव बतलाकर छठे में केवल ऊपर से इन्द्रियों की क्रिया न करने वाले विषय चिन्तक मनुष्य को मिथ्याचारी बतलाया है और सातवें में मन से इन्द्रियों का संयम करके इन्द्रियों का संयम करके इन्द्रियों के द्वारा अनासक्त भाव से कर्म करने वाले की प्रशंसा की है। आठवें और नवें में कर्म न करने की अपेक्षा कर्मों का करना श्रेष्ठ बतलाया है तथा कर्मों के बिना शरीर निर्वाह को असम्भव बतलाकर निःस्वार्थ और अनासक्त भाव से विहित कर्म करने की आज्ञा दी है। दसमें से बारहवें तक प्रजापति की आज्ञा होने के कारण कर्मों की अवश्यकर्तव्यता सिद्ध करते हुए तेरहवें में यज्ञशिष्ट अन्न से सब पापों का विनाश होना और यज्ञ न साधारण मनुष्यों को विचलित न करने की बात कही गयी है। तीसवें में अर्जुन को आशा, ममता और सन्तान का सर्वथा त्याग करके भगवदर्पणबुद्धि से युद्ध करने की आज्ञा देकर इकतीसवें में उस सिद्धान्त के अनुसार चलने वाले श्रद्धालु पुरुषों का मुक्त होना और बत्तीसवें में उसके अनुसार न चलने वाले दोषदर्शियों का पतन होना बतलाया है। उसके बाद तैंतीसवें में प्रकृति के अनुसार स्वरूप से क्रिया न करने में समस्त मनुष्यों की असमर्थता सिद्ध करते हुए चौंतीसवें में राग-द्वेष के वश में न होने की प्रेरणा की है और पैंतीसवें में परधर्म की अपेक्षा स्वधर्म को कल्याणकारक एवं परधर्म को भयावह बतलाया है। छत्तीसवें में अर्जुन के यह पूछने पर कि ‘बलात् मनुष्य को पाप में प्रवृत्त कौन करता है,’ सैंतीसवें में कामरूप वैरी को समस्त पापाचरण का मूल कारण बतलाया है और अड़तालीसवें से इकतालीसवें तक उस काम को अग्नि की भाँति दुष्पूर और ज्ञान का आवरण करने वाला महान् शत्रु बतलाकर एवं उसके निवास स्थानों का वर्णन करके इन्द्रिय-संयमपूर्वक उसका नाश करने के लिये कहा है। फिर बयालीसवें में इन्द्रिय, मन और बुद्धि से आत्मा को अतिशय श्रेष्ठ बतलाकर तैंतालीसवें में बुद्धि के द्वारा मन का संयम करके काम को मारने की आज्ञा देते हुए अध्याय की समाप्ति की है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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