श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
त्रयोदश अध्याय
अध्याय का संक्षेप- इस अध्याय के पहले श्लोक में क्षेत्र (शरीर) और ‘क्षेत्रज्ञ’ (आत्मा) का लक्षण बतलाया गया है, दूसरे में परमात्मा के साथ आत्मा की एकता का प्रतिपादन करके क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के ज्ञान को ही ज्ञान बताया गया है। तीसरे में विकार सहित क्षेत्र के स्वरूप और स्वभाव आदि का एवं प्रभावसहित क्षेत्रज्ञ के स्वरूप का वर्णन करने की प्रतिज्ञा करके चौथे में ऋषि, वेद और ब्रह्मसूत्र का प्रमाण देते हुए पाँचवें और छठे में विकारों सहित क्षेत्र का स्वरूप बतलाया गया है। सातवें से ग्यारहवें तक तत्त्वज्ञान की प्राप्ति में साधन होने के कारण जिनका नाम ‘ज्ञान’ रखा गया है, ऐसे ‘अमानित्व’ आदि बीस सात्त्विक भावों और आचरणों का वर्णन किया गया है। तदनन्तर बारहवें से सत्रहवें तक ज्ञान के द्वारा जानने योग्य परमात्मा के स्वरूप का वर्णन करके अठारहवें में अब तक के प्रतिपादित विषयों का नाम बतलाकर इस प्रकरण को जानने का फल परमात्मा के स्वरूप की प्राप्ति बतलाया गया है। इसके बाद ‘प्रकृति’ और ‘पुरुष’ के नाम से प्रकरण आरम्भ करके उन्नीसवें से इक्कीसवें तक प्रकृति के स्वरूप और कार्य का तथा क्षेत्रज्ञ के स्वरूप का वर्णन किया गया है। बाईसवें में परमात्मा और आत्मा की एकता का प्रतिपादन करके तेईसवें में गुणों के सहित प्रकृति को और पुरुष को जानने का फल बतलाकर चौबीसवें और पचीसवें में परमात्म-साक्षात्कार के विभिन्न उपायों का वर्णन किया गया हैं छब्बीसवें में क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के संयोग से समस्त चराचर प्राणियों की उत्पत्ति बतलाकर सत्ताईसवें से तीसवें तक ‘परमात्मा समभाव से स्थित अविनाशी और अकर्ता हैं तथा जितने भी कर्म होते हैं सब प्रकृति के द्वारा ही किये जाते हैं तथा सब कुछ परमात्मतत्त्व से ही विस्तृत और उसी में स्थित हैं’ इस प्रकार समझने का महत्त्व और साथ ही उसका फल भी बतलाया गया है। इकतीसवें से तैंतीसवें तक आत्मा के प्रभाव को समझाते हुए उसके अकर्तापन का और निर्लेपता का दृष्टान्तों द्वारा निरूपण करके अन्त में चौंतीसवें श्लोक में क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के विभाग को जानने का फल परमात्मा की प्राप्ति बतलाकर अध्याय का उपसंहार किया गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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