श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
द्वितीय अध्याय
उत्तर- पूर्वश्लोक में भगवान् ने अर्जुन को जिस समभाव से युक्त होकर युद्ध करने के लिये कहा है, उसी समता का वाचक यहाँ ‘एषा’ पद के सहित ‘बुद्धिः’ पद है; क्योंकि ‘एषा’ पद अत्यन्त निकटवर्ती वस्तु का लक्ष्य कराने वाला है। अतएव इस कथन से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि ज्ञानयोग के साधन से यह समभाव किस प्रकार प्राप्त होता है, ज्ञानयोगी को आत्मा का यथार्थ स्वरूप विवेक द्वारा समझकर किस प्रकार समभाव से युक्त रहते हुए वर्णाश्रमोचित विहित कर्म करने चाहिये- ये सब बातें ग्यारहवें श्लोक से लेकर तीसवें श्लोक तक बतला दी गयीं। प्रश्न- ग्यारहवें श्लोक से तीसवें श्लोक तक के प्रकरण में इस समभाव का वर्णन किस प्रकार किया गया? उत्तर- आत्मा के यथार्थ स्वरूप को न जानने के कारण ही मनुष्य का समस्त पदार्थों में विषमभाव हो रहा है। जब आत्मा के यथार्थ स्वरूप को समझ लेने पर उसकी दृष्टि में आत्मा और परमात्मा का भेद नहीं रहता और एक सच्चिदानन्दघन ब्रह्म से भिन्न किसी की सत्ता नहीं रहती, तब उसकी किसी में भेदबुद्धि हो ही कैसे सकती है। इसीलिये भगवान् ने एकादश श्लोक में मरने और जीवित रहने में भ्रममूलक इस विषमभाव या भेदबुद्धि के कारण होने वाले शोक को सर्वथा अनुचित बतलाकर उस शोक से रहित होने के लिये संकेत किया। बारहवें और तेरहवें श्लोकों में आत्मा के नित्यत्व और असंगत्व का प्रतिपादन करते हुए यह दिखलाया है कि प्राणियों के मरने में और जीवित रहने में जो भेद प्रतीत होता है, यह अज्ञानजनित है, आत्मज्ञानी धीर पुरुषों में यह भेदबुद्धि नहीं रहती; क्योंकि आत्मा सम, निर्विकार और नित्य है। तदन्तर शीत-उष्ण, सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों के द्वारा भेदबुद्धि उत्पन्न करने वाले शब्दादि समस्त विषय संयोगों को अनित्य बतलाकर अर्जुन को उन्हें सहन करने के लिये- उनमें सम रहने के लिये कहा[1] और सुख-दुःखादि को सम समझने वाले पुरुष की प्रशंसा करके उसे परमात्मा की प्राप्ति का पात्र बतलाया।[2] इसके बाद सत्यासत्य वस्तु का निर्णय करके अर्जुन को युद्ध के लिये आज्ञा देकर[3] अगले श्लोकों में आत्मा को मरने-मारने वाला मानने वालों को अज्ञानी बतलाकर आत्मा के निर्विकारत्व, अकर्तुत्व और नित्यत्व का प्रतिपादन करते हुए यह बात सिद्ध कर दी कि शरीरों के नाश से आत्मा का नाश नहीं होता; इसलिये इस मरने और जीने में विषमभाव करके तुम्हें किसी भी प्राणी के लिये किंचिन्मात्र भी शोक करना उचित नहीं है।[4] इस प्रकार उक्त प्रकरण में सत्य और असत्य पदार्थों के विवेचन द्वारा आत्मा के यथार्थ स्वरूप को जानने से होने वाली समता का प्रतिपादन किया गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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